Saturday, 16 June 2018

भाषा(language) उत्पति एवं सिद्धांत


भाषा की उत्पति और सिद्धांत
भाषा कि उत्पति  कैसे हुइ यह जानना हमारे लिए महत्त्वपूर्ण बात है क्योकि भाषा कि उत्पति से हमारे समाज कि प्रगति की विकास यात्रा जुडी हुइ है आज कि पूरे विश्व कि भाषा इतनी परिवर्तित हो चुकी है कि उनके जरिए यदि हम भाषा उत्पति की सोचेगे तो उत्तर नही मिल सकेगा क्योकि क्क्योंकि आधुनिक भाषाएँ अपने मूल रूप से बहुत ही दूर चुकी है मूल रूप से इतनी दूर चुकी है कि अंतर नापना मुश्किल है उनके आधार पर भाषा के मूलरूप को पहचानना मुश्किल है यदि अंतर कम होता तो हम अनुमान, झोड-तोड, तर्क आदि के सहारे भाषा कि उत्पति को जान लेते लेकिन आज हम सिर्फ कल्पना कर सकते है बाकी कुछ नहीं इसलिए भाषा के मूल पर जाना मुश्किल बना हुआ है आज हम भाषा उत्पति के विषय पर किए गए अनुमानो पर चर्चा करेंगे जिन्हें सिद्धांत भी कहे जाते है लेकिन कोइ बात सिद्धांत तब कहलाती है जब वह सत्य हो यहा दिए गए तथ्य सिद्धांत कहलाने के लायक है या नहीं आप ही निश्चित करे।
Ø  दिव्योत्पति सिद्धांत :
भाषाओं की उत्पत्ति के सम्बन्ध में सबसे प्राचीन मत यह है कि संसार की अनेकानेक वस्तुओं की रचना जहाँ भगवान ने की है तो सब भाषाएँ भी भगवान की ही बनाई हुई हैं। कुछ लोग तो आज भी इसी मत को मानते हैं। मनुष्य की पराचेतना किसी अलौकिक सूत्र से बंधी हुई है.सम्पूर्ण सृष्टि के जन्म के विषय में एक अध्यात्मिक सूत्र सामने रखा गया है….एकोऽहम बहुस्याम. ईश्वर ने यह कामना की कि मैं अकेला हूँ इसलिए स्वंय को बहुतों में विभक्त करना चाहिये.यही कारण है कि यह अखिल ब्रह्मांड उस ईश्वर का विशाल दर्पण है और हम सब उस परमपिता की संतान हैं.
इस भावबोध के जगते ही मनुष्य सामुदायिक जीवन यापन का बोध और भी विकसित हुआ क्योंकि संयुक्त रूप से जीवन यापन में एक सुरक्षा का बोध है और विकास का अनुभव. इसलिये ऋगवेद के एक सूक्त में ऋषियों ने अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हुये कहा कि वाणी दैविक शक्ति का वरदान है जो इस संसार के सभी प्राणियों को प्राप्त हुआ है और मनुष्य की चेतना में इसी वाणी ने परिनिष्ठित भाषा का रूप लिया.

संस्कृत को देवभाषाकहने में इसी का संकेत मिलता है। इसी प्रकार पाणिनी के व्याकरण अष्ब्टाध्यायीके 14मूल सूत्र महेश्वर के डमरू से निकले माने जाते हैं। बौद्ध लोग पालिको भी इसी प्रकार मूल भाषा मानते रहे हैं उनका विश्वास है कि भाषा अनादि काल से चली रही है। जैन लोग इससे भी आगे बढ़ गए हैं। उनके अनुसार अर्धमागधी केवल मनुष्यों की ही नही अपितु देव, पशु-पक्षी सभी की भाषा है। हिब्रू भाषा के कुछ विद्वानों ने बहुत-सी भाषाओं के वे शब्द इकट्ठे किए जो हिबू से मिलते जुलते थे और इस आधार पर यह सिद्ध किया कि हिब्रू ही संसार की सभी भाषाओं की जननी है।
इस विश्लेषण के अनुसार भाषा की उत्पति का प्रायोजन दैविक माना जाता है लेकिन जैसे-जैसे भाषाविज्ञानियों की खोज आगे बढ़ती गई,इस सिद्धांत पर भी कुछ शंकाएँ उठने लगी.जैसे- अनीश्वरवादियों का तर्क है कि यदि मनुष्य को भाषा मिलनी थी जन्म के साथ क्यों नहीं मिली. क्योंकि एनी सभी जीवों को बोलियों का उपहार जन्म के साथ-साथ मिला लेकिन,मानव शिशु को जन्म लेते भाषा नहीं मिली.उसने अपने समाज में रहकर धीरे-धीरे भाषागत संस्कारों का विकास किया.
यदि भाषा की दैवी उत्पत्ति हुई होती हो सारे संसार की एक ही भाषा होती तथा बच्चा जन्म से ही भाषा बोलने लगता। इससे सिद्ध होता है कि यह केवल अंधविश्वास है कोई ठोस सिद्धान्त नहीं है।
मिस्र के राजा सैमेटिक्स, फ्रेड्रिक द्वित्तीय (1195-1250), स्काटलैंड के जेम्स चतुर्थ (1488-1513) तथा अकबर बादशाह (1556-1605) ने भिन्न-भिन्न प्रयोगों द्वारा छोटे शिशुओं को समाज से पृथक् एकान्त में रखकर देखा कि उन्हें कोई भाषा आती है या नहीं। सबसे सफल अकबर का प्रयोग रहा क्योंकि वे दोनों लड़के गूंगे निकले जो समाज से अलग रखे गए थे। इससे सिद्ध होता है कि भाषा प्रकृति के द्वारा प्रदत्त कोई उपहार नहीं है।
भाषा में नये-नये शब्दों का आगमन होता रहता है और पुराने शब्द प्रयोग-क्षेत्र से बाहर हो जाते हैं।
निष्कर्ष
भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में दैवी सिद्धान्त तर्कसंगत नहीं है। इसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अभाव है। इसमें भाषा की उत्पत्ति की समस्या का कोई समाधान नहीं मिलता। हाँ, इस सिद्धान्त में यहाँ तक सच्चाई तो है कि बोलने की शक्ति मनुष्य को जन्मजात अवस्था से प्राप्त है।
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि कुछ हद तक इस सिद्धांत को स्वीकार कर लिया जाय,तब भी दिव्योत्पति सिद्धांत का नियामक नहीं हो सकता.इसलिये भाषाविज्ञानियों ने अन्य प्रयोजनों पर शोध कार्य जारी रखा और कुछ नये सिद्धांत सामने आये.
Ø  संकेत सिद्धांत:
इसे निर्णय-सिद्धान्त भी कहते हैं। इस सिद्धान्त के प्रथम प्रतिपादक फ्राँसीसी विचारक रूसो हैं। संकेत सिद्धान्त के अनुसार प्रारम्भिक अवस्था में मानव ने अपने भावों-विचारों को अपने अंग संकेतों से प्रषित किया होगा बाद में इसमें जब कठिनाई आने लगी तो सभी मनुष्यों ने सामाजिक समझौते के आधार पर विभिन्न भावों, विचारों और पदार्थों के लिए अनेक ध्वन्यात्मक संकेत निश्चित कर लिए। यह कार्य सभी मनुष्यों ने एकत्र होकर विचार विनिमय द्वारा किया। इस प्रकार भाषा का क्रमिक गठन हुआ और एक सामाजिक पृष्ठभूमि में सांकेतिक संस्था द्वारा भाषा की उत्पत्ति हुई। विश्व भाषाविज्ञानी यह स्वीकार करते हैं कि मनुष्य के पास जब भाषा नहीं थी,तब वह संकेतों से अपनी विचारों की अभिव्यक्ति करता था.यह संप्रेषण यद्यपि अधूरा होता था तथापि,आंगिक चेष्टाओं के माध्यम से परस्पर परामर्श करने की एक कला विकसित हो रही थी.विचार विनियम के लिये यह आंगिक संकेत सूत्र एक नये सिद्धांत के रूप में सामने आया और संकेत के माध्यम से ही भाषाएँ गढ़ी जाने लगी.भाषाविज्ञानियों का यह मानना है कि जिस समय विश्व की भाषा का कोई मानक स्वरुप स्थिर नहीं हुआ था,उस समय मनुष्य संकेत शैली में ही वैचारिक आदान-प्रदान किया करता था.
इस संकेत सिद्धान्त के आधार पर आगे चलकर रचई’, ‘रायतथा जोहान्सन आदि विद्वानों ने इंगित सिद्धान्त (Gestural theory) का प्रतिपादन किया जो संकेत सिद्धान्त की अपेक्षा कुछ अधिक परिष्कृत होते हुए भी लगभग इसी मान्यता को प्रकट करता है।
समीक्षा * यह सिद्धान्त यह मान कर चलता है कि इससे पूर्व मानव को भाषा की प्राप्ति नहीं हुई थी। यदि ऐसा है तो अन्य भाषाहीन प्राणियों की भाँति मनुष्य को भी भाषा की आवश्यकता का अनुभव नहीं होना चाहिए था। यह सिद्धांत अपने आप में कुछ विसंगतिओं को साथ लेकर चलता है.आज के भाषाविज्ञानी इस सिद्धांत के विषय में पहला तर्क यह देता है कि मनुष्य यदि भाषाविहीन प्राणी था तो उसे संकेतों से काम चलाना गया.फिर संकेत भाषा कैसे बनी ? दूसरा संशय यह भी है कि यदि पहली बार मानव समुदाय में किसी भाषा का विकास करने के लिये कोई महासभा बुलाई तो उसमें संकेतों का मानकीकरण किस प्रकार हुआ. और अंतिम आशंका इस तत्थ पर की गई कि लोक व्यवहार के लिये जिन संकेतों का प्रयोग किया गया,वे इतने सक्षम नहीं थे कि उससे भाषा की उत्पति हो जाती.
यह तर्कसंगत नहीं है कि भाषा के सहारे के बिना लोगों को एकत्रित किया गया, भला कैसे? फिर विचार-विमर्श भाषा के माध्यम के अभाव में किस प्रकार सम्भव हुआ।
इस सिद्धान्त के अनुसार सभी भाषाएँ धातुओं से बनी है परन्तु चीनी आदि भाषाओं के सन्दर्भ में यह सत्य नहीं हैं
जिन वस्तुओं के लिए संकेत निश्चित किये गये उन्हें किस आधार पर एकत्रित किया गया।
संक्षेप में, भाषा के अभाव में यदि इतना बडा निर्णय लिया जा सकता है तो बिना भाषा के सभी कार्य किये जा सकते हैं। अतः भाषा की आवश्यकता कहाँ रही?
·         निष्कर्ष
इस सिद्धान्त में एक तो कृत्रिम उपायों द्वारा भाषा की उत्पत्ति सिद्ध करने का प्रयास किया गया है दूसरे यह सिद्धान्त पूर्णतः कल्पना पर आधारित है। अतः तर्क की कसौटी पर खरा नही उतरता।
संकेत सिद्धांत का एक बड़ा महत्व यह है कि इसके द्वारा उच्चरित स्वर व्यंजनों के क्रम का सुनिश्चित किया जा सकता है.जैसाकि महर्षि पाणिनी ने किया था.भाषावैज्ञानिकों ने भाषा की उत्पति के संबंध में अपने विचार देते हुये संकेत सिद्धांत की स्थापना की.इस सिद्धांत के अनुसार मनुष्य के पास भाषा नहीं थी.
Ø  धातु या अनुरणन सिद्धान्त/रण रणन सिद्धांत (Root-theory):
इस सिद्धान्त के मूल विचारक प्लेटोथे। जो एक महान दर्शनिक थे। इसके बाद जर्मन प्रोफेसर हेस ने अपने एक व्याख्यान में इसका उल्लेख किया था। बाद में उनके शिष्य डॉ॰ स्टाइन्थाल ने इसे मुद्रित करवा कर विद्वानों के समने रखा। मैक्समूलर ने भी पहले इसे स्वीकार किया किन्तु बाद में व्यर्थ कहकर छोड़ दिया।
इस सिद्धान्त के अनुसार संसार की हर चीज की अपनी एक ध्वनि है। यदि हम एक डंडे से एक काठ, लोहे, सोने, कपड़े, कागज आदि पर चोट मारें तो प्रत्येक में से भिन्न प्रकार की ध्वनि निकलेगी। प्रारम्भिक मानव में भी ऐसी सहज शक्ति थी। वह जब किसी बाह्य वस्तु के सम्पर्क में आता तो उस पर उससे उत्पन्न ध्वनि की अनुकरण की) छाप पड़ती थी। उन ध्वनियों का अनुकरण करते हुए उसने कुछ सौ (400या 500) मूल धातुओं (मूल शब्दों) का निर्माण कर लिया जब कुछ कामचलाऊ धातु शब्द बन गए और उसे भाषा प्राप्त हो गई तो उसकी भाषा बनाने की सहज शक्ति समाप्त हो गई। तब वह इन्हीं धातुओं से नए-नए शब्द बना कर अपना काम चलाने लगा।
भाषा वैज्ञानिकों ने रणन सिद्धांत की व्याख्या करते हुये यह स्पष्ट किया कि प्रत्येक वस्तु के भीतर अव्यक्त ध्वनियाँ रहती है.प्लुटो मैक्सीकुलर ने इस सिद्धांत को आधार बनाकर भाषा के जन्म का प्रायोजन सिद्ध किया था.उदाहरण के लिये किसी भारी वस्तु से किसी दूसरी वस्तु पर आघात किया जाय तो कुछ ध्वनियाँ निकलती है. लकड़ी,पत्थर,ईंट और अलग-अलग धातुएँ, इन सबों में अलग-अलग ध्वनियाँ छिपी होती है और बिना देखे भी मनुष्य आसानी से जान सकता है कि किस वस्तु या किस धातु की कौन सी ध्वनि है. इससे यह स्पष्ट होता है कि संसार में ध्वनि आई. फिर धीरे-धीरे उन्हीं ध्वनियों का अनुसरण करते हुये मनुष्य ने शब्दों का आविष्कार किया.
समीक्षा
  • इस सिद्धान्त की निस्सारता या अनुपयोगिता के कारण ही मैक्समूलर ने इसका परित्याग किया था। इसके खण्डन के लिए निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं-
  • इस सिद्धान्त के अनुसार आदि मानव में नये-नये धातु बनाने की सहज शक्ति का होना कल्पित किया गया है जिसका कोई प्रामाणिक आधार नहीं है।
  • यह सिद्धान्त शब्द और अर्थ में स्वाभाविक सम्बन्ध मान कर चलता है किन्तु यह मान्यता निराधार है।
  • इस सिद्धान्त के अनुसार सभी भाषाएँ धातुओं से बनी हैं किन्तु चीनी आदि कुछ भाषाओं के सम्बन्ध में यह सत्य नहीं है।
  • आज भाषाओं के वैज्ञानिक विवेचन से यह मान्यता बन गई है कि सभी धातुओंया मूल शब्दों की परिकल्पना भाषा के बाद व्याकरण-सम्बन्धी विवेचन का परिणाम है।
  • यह सिद्धान्त भाषा को पूर्ण मानता है जबकि भाषा सदैव परिवर्तन और गतिशील होने के कारण अपूर्ण ही रहती है।
  • आधुनिक मान्यता के अनुसार भाषा का आरम्भ धातुओं से बने शब्दों से न होकर पूर्ण विचार वाले वाक्यों के द्वारा हुआ होगा।
इस सिद्धांत में शब्द के अर्थ के नैसर्गिक संबंध की व्याख्या की गई है.साथ ही साथ यह प्रमाणित किया गया है कि ध्वनियों से शब्द बने. लेकिन यह सिद्धांत भी अपने आप में अधूरा है क्योंकि,संसार की सभी भाषाओं में केवल ध्वनिमूलक शब्द नहीं हैं. हमारे यहाँ प्रत्येक भाषा शब्दों का अक्षर भंडार समेटने की सामर्थ्य रखती है.इसलिये कुछ वस्तुओं-धातुओं के ध्वनि से भाषा की उत्पति संभव नहीं है.अतः एक नए सिद्धांत का परिवर्तन किया गया,जिसे आवेग सिद्धांत कहते हैं.
Ø  आवेग सिद्धांत :
आवेग शब्द का प्रत्यक्ष संबंध मनोवेगों से होता है.मनुष्य के भीतर नाना प्रकार के आवेग पलते रहते हैं.जैसे: सुख-दुःख,क्रोध,घृणा,करूणा,आश्यर्य आदि.इन सभी मनोभावों को अभिव्यक्त करने की आवश्यकता होती है.इसीलिये संवेदना या अनुभूति के चरण पर पहुँच कर कुछ ध्वनियाँ अपने आप निकल जाती है.जैसे: आह,हाय,वाह,अहाँ आदि.
आवेग सिद्धांत की कुछ त्रुटियाँ हैं.इसमें आवेग या मनोवेग ही प्रमुख है और आवेग या मनोवेग मनुष्य के सहज रूप का संप्रेषण नहीं कर पाता. भाषा को यदि  संप्रेषण का माध्यम माना गया तो उसमें बहुत सारी स्थितियाँ ऐसी है जिसमें सहज अभिव्यक्ति की अपेक्षा होती है.यदि किसी विचार को संप्रेषित करने की आवश्यकता हो तो आवेग सिद्धांत वहाँ सार्थक नहीं मन जा सकता.इस लिये इस सिद्धांत की भी अपनी सीमा रेखा है और आवेग मूलक ध्वनियाँ ही किसी भाषा की संपूर्ण विशेषता का मानक नहीं हो सकती.
Ø  इंगित सिद्धांत :
भाषा वैज्ञानिकों का एक विशेष दल अपने प्रयोगों के आधार पर यह मानता है कि इंगित या अनुकरण से भाषा उत्पन्न हुई है.इंगित को संकेत सिद्धांत के साथ जोड़ा जा सकता है लेकिन भाषावैज्ञानिक के मत में पाषाण काल का मानव ,पशु-पक्षियों के अनुकरण से इंगित से सीखने की आकाक्षां रखता था.पशु जल के स्रोत में मुँह लगाकर पानी पीते थे.अपनी प्यास बुझाने हेतु आदि मानव ने उसी क्रिया का अनुकरण किया और उसने दोनों होठों के जुड़ने और खुलने की ध्वनि से पानी शब्द पाया.इसी प्रकार अनुकरण से अनेक शब्द प्राप्त हुये. लेकिन अनुकरण या दूसरे पर निर्भर रहने की प्रवृति बहुत दिनों तक नहीं चली और धीरे-धीरे मनुष्य ने अपनी बुद्धि से नए शब्दों का आविष्कार किया तथा भाषा के मामले में संपूर्ण सामर्थ्यवान होता चला गया.
यही कारण है कि भाषावैज्ञानिकों का आज का विश्लेषण यह निष्पति देता है कि भाषा की उत्पति के लिये सभी सिद्धांतों को मिलाते हुये एक समन्वय सिद्धांत की स्थापना होनी चाहिये. यह सच है कि कुछ शब्द दैविक अलौकिक कारणों से उत्पन्न हुये.कुछ शब्दों के लिये संकेत की शैली प्रायोजन बनी.कहीं भाषा का व्यापक स्वरुप ध्वनि से जुड़कर और भी व्यापक हुआ. कहीं अनुकरण की क्रिया का सहारा लेकर भाषा की यात्रा आगे बढ़ी.कहीं मनोवेगों ने साथ दिया और सबसे अधिक विचारों की परिपक्वता को संप्रेषित करने के लिये मनुष्य की बौद्धिकता ने जीवन की प्रयोगशाला में नये तथा सार्थक शब्दों का निर्माण किया.
इन सिद्धांतो के अतिरिक्त और सिद्धांत-
Ø  परग्रहवासी सिद्धांत-
यह सिद्धांत आधुनिक समाज की विचारधारा कि देन है । एलियन्स के अगवाह किए जाने की अफवाहे एवं उडती रकाबी जैसी बातोने एलियन होने पर लोगो के मानसिकता मे पकड जमाइ इतना ही नही एलियन्स पर कई फिल्म एवं लेखकोने भी काल्पनिकता दिखाइ एसेमे  सबका ध्यान उन भव्य प्राचिनता पर गया. दैवय बातो पर गया और खोजबीन जारी कि हिस्टरी चैनलने तो पूरी डॉक्यूमेन्टरी बनाइ और उनका नाम था एन्सियन्ट एलियन्स एसे सबूत वो बताते है और उनके विश्लेषणो से वो लोग मानते है कि हमारे प्राचीन सभ्यता को किसीने सँवारा है तो वह परग्रह वासी थे। परग्रह वासीने ही मानव को सभ्य बनाया। हिसटरी चैनल  तो यह भी मानती है क कि आज भी वे हमें मदद कर रहे है । आज नेट पर भी एन्सियन्ट एलियन्स की पूरी सिरीज आपको यूट्यूब पर मिल जाएगी । वो कहते है परग्रहवासी के  विज्ञान को हम समझ नहीं पाए इसलिए हमने उन्हे देवता का रूप मान लिया ।  परग्रह वासीके लोगोने हमारी पूरी पृथ्वी पर बसेरा किया था। जिस तरह यदि हम आज कोइ नया ग्रह ढूंढनेमें कामयाब होंगे तो वहां पर भी बट जायेंगे वहा  पर इन्डिया का अलग विस्तार होगा, अमेरिका का अलग विस्तार होगा । यदि हमें वहां अविकसित कोइ जाति मिलती है तो हम उसे हमारी भषा शिखाएंगे यानि भार हिन्दयानि भारत के लोग वहा की प्रजाति को हिन्दी और अमेरिका के लोग अंग्रेजी और चिन के लोग चिनि भाषा शीखायेंगे बाद में समय रहते उन भाषाओमें दलाव आ सकता है । भाषा का एक महत्त्वपूर्ण लक्षण यह रहा है कि वह बिना शीखाए नही पनपती यानि भाषा दूसरो से ही शीखी जाति है स्वयं उत्पन्न नहीं होती तो हम कह सकते है कि इन्सानो को किसीने भषा शीखाई होंगी । भाषामें जो विभिन्नता पाई जाति है वह बताता है परग्रह के जो लोग आए थे वहां पर भी अनेक प्रकार की भषाए बोली जाति होंगी । उन्होंने हमें सभ्य बनाया और छोडकर चले गये उनके लिए हम बहोत पिछे है इसलिए शायद उन्हें हमारी जरूरत नहीं है । इसलिए वहमारी दूनिया पर आते नही हों लकिन नजर बनाये हुए हो ओर वह भी उनकी अद्यतन टेकनोलोजी की मदद से । तो कह सकेतेतो परग्रहवासियोंने इंसानो को भाषा शिखाई ।
परग्रहवासी होने की कोइ दस्तावेजीकरण नही है । यानि एलियन्स है या नहीं इस पर अब भी प्रश्न है ।
इस तर्क को मानने के लिए एलियन्स को मानना पडेगा लेकिन विज्ञान उन्हे नकार रहा है विज्ञान कहती है हमारे नजदिकी कोइ ग्रह मे एलियन्स तो क्या प्राथमिक जिवो के लिए वातावरण भी नहीं है । हमारी गेलेक्सी के बहार से आए कोइ परग्रहवासी  हो तो वो यहाँ तक कैसे आए होंगे यह एक प्रश्न सा बना रहता है ।
जब कोइ एसे ग्रह की खोज करले तो इस तर्क को माना जा सकता है या रूबरू कोइ परग्रहवासी मिल जाए तो माना जा सकता है कि परग्रहवासियों ने मानव को भाषा शीखाई होगी । इस तर्क मे ताकत तो है लेकिन सबूतो के अभाव में इसे कैसे माना जाये यह भी एक प्रश्न है। इतिहासकार अपने खोज के जरिए सबूत तो इकठ्ठे कर रहे है शायद कोइ पक्का सबूत मिल जाए । आशासह ....
Ø  मनोवैज्ञानिक सिद्धांत-
मानव कि बात हो ओर हम मनोविज्ञान को भूलकर बात करे तो अधूरे ही रह जायेंगे मनोविज्ञान और उसकी पेटा शाखा शिक्षा मनोविज्ञानने प्राणीयो पर विभिन्न प्रयोग कर प्राणी कैसे शीखते है उसका अद्यय किया है क्यूकि मनुष्य पहले प्राणी ही था तो उसकी शीखने की प्रक्रिया भी प्राणियो जैसी ही रही होंगी लेकिन मनुष्य के पास अन्य प्राणियो से तेज बुद्धि शक्ति थी । मनोविज्ञान के साथ-साथ हमे शरीर शास्त्र भी देखना पडेंगा इसके अनुसार प्राणियो से भिन्न हमारा शरीर है भाषा के संदर्भ मे देखे तो मुह एवं जीह्वा सटीक व्यवस्थित है (प्राणियो के मुकाबले) और इन्ही रचना के कारण मनुष्य शायद सभी ध्वनियों का उच्चारण कर सकता है । भाषा कि उत्पति को समझने के लिए प्राणियो कि कुछ सान बातो को भी ध्यान में रखना होंगा शायद पहले ( आदिमानव के वक्त) मानव प्राणियो जैसा ही जिवन जिता हो लेकिन थोडा उन्नत तरीके से जीता हो। कुछ बाते जो हमें प्राणियों मे  देखनो को मिलती है वही बाते स्वाभिवकतः मानव में भी होंगी । जैसे- नेतृत्व करना प्राणियों मे दिखाइ देता है संभोग करना प्राणियों में दिखाइ देता है । समूह में रहना प्राणियो में दिखाइ देता है मातृप्रेम, परिवार भाव, समूह भाव, दूसरे गिरोह के साथ लडाइ करना आदि सारी बाते प्राणियों में देखे को मिलती है वह स्वताः मानव में भी होगी । और वह उसी तरीके जी रहा होगा । हमें भाषा के विकास को आज के सदर्भ में न देखकर शरूआती विकास के संदर्भ में देखनाहोंगा शायद ध्वनि से शब्द , शब्द से अर्थपूर्ण शब्द और उस अर्थपूर्ण शब्द से व्याकरण बद्ध भाषा इन सारे विकास के पहलूओ पर शायद एक-एक युग यानि 1000-1000 साल लगे हो ।यानि कि भाषा कि जो विकासगति आज दिख रही हैवह शायद आदिमानव के वख्त बहुत धीमी रही हो । इसीलिए हम उसे समज न पाए । और इन सभी बातो से महत्तवपूर्ण बात है उत्क्रांतिवाद, प्रकृति का चयन, विकासमान सजीव सृष्टि- मानव उन दिनो विकास होता रहा है और कुछ बुनियादी बाते जैसे कि कइ पंछी हें कि उन्हें वे ध्वनिया कहीं सुनि नहीं लेकिन उन्हें वे आती है कोयल कौए के घोसलेमे पलती है लेकिन ध्वनि तो अपनी ही निकालती है यानि की बुनियादी ज्ञान होता है कइ पंछी तो कइ प्रकार की ध्वनियां  निकाल लेते है वह भी बुनियादी ज्ञान पर कुछ बाते जो बुनियादी होती है जो शिखानी नही पडती मगर वह एक जिन- से दुसरे जिन में जाया करती है । इन सारी बातो को हमें ध्यान में रखनी होंगी तभी हम भाषा कि उत्पति के विषय में एकमत मत होगे ।
विकास कि प्रक्रियाने हमें मानव का अवतार दिया हम उन प्राणियो से अलग थे हम सीधए चलते थे हमारे पास उन सभी प्राणियों से कुछ ज्यादा ही ताकात प्रकृतिने दी थी उस समय उस मानव को तो नही पता चला होंगा लेकिन आज हम कह सकते है कि प्रकृतिने मानव को उच्च ताकते दी । प्राणि सहज जिंदगी जिता था लेकिन गुफा में रहना आग जलाना हथियार बनाना इन सारी बातो को उसने प्रकृतिसे शीखी वह भी आंतरसूझ, अनुकरण, प्रेरणा जैसे मनोवैज्ञानिक कारको के जरिये । समूह का नेता होता था प्राणियों कि तरह ही सभी लोग साथ में जूड बनाकर शीकार पर करने जाया करते होंगे कुछ कमजोर स्थानक पर रहते होंगे और वे बच्चो का ख्याल रखते होगे । एक टोली यहा पर तो दूसरी टोली दूसरी जगह पर एसी कइ टोलियोमे मानव बंटा होगो क्योकि गुण प्राणियों मे देखने को मिलते है । एक टोलि से दूसरीटोली का चोरी करना उस पर आक्रमण करना यह स्वाभाविक रहा होगा क्योंकि एसे लक्षण हमें प्राणियों मे मिलते है । मनुष्यमनुष्य के पास अनुकरण एवं आंतरसूझ कि शक्ति थी( अग्नि की खोज) वह देखर अनुकरण कर सकता था और आंतरसूझ के झरीए नया ज्ञान भी बना सकता था यह शक्ति मनुष्य के पास कुछ ज्यादा थी आंतरसूझ से प्राणी भी कई हेरत अंगेज कारनामें कर देते है कोहलरने जीस चिम्पाजी पर प्रयोग किया वह अपनी आंतरसूझ के बल पर ही लकडीके डू को के टूकडो को जोड सका ।  एक बंदर को यह कभी नही शीखाया था कि एसे लकडी जोडते है लेकिन आतंरसूझ के माध्यम वह शीख गया । मानव की आंतरसूझ कि शक्ति उस चिम्पांझ से ज्यादा थी। पहले मानवीने ध्वनिया निकालनी शीखी ।
अनुकरण से-प्राणियो की, पर्यावरण कि एवं अपने हाव भावो किअपने हावभावो कि ध्वनियों का अनुकरण करता रहता था।
निहित ध्विनया- कुछ ध्वनिया मनुष्य के स्वताः अंदर सेआती हो जो शाय़द आज विकास की यात्रा मे हम भूल गये हो ।
ध्वनिया तो कइ प्राणी भी अनुकरण से शीखते है जेसे तोता हम उसे बोलना शीखा लेते है अगर तोता अनुकऱण से ध्वनिया शीख सकता हो तो हम तो उससे आगे थे तो हमनें कइ ध्वनिया शीखि
इन ध्वनियो का व्यवहार में क्या प्रयोग हो सकता है
प्राणियो को भगाने -  कोइ शीकारी जानवर टोलियों  में आ ता होगा तो उसे अलग-अलग ध्वनियों से यानि चिल्लाकर या दूसरे प्रकार की ध्वनियो से एक साथ बोलकर भगा देते होंगे । यहा पर ध्वनियां उसके काम आइ यानि उन्हे प्रति पुष्टि मिली जब प्राणी को प्रतिपुष्टि मिलती है तो वर्तन पुनारवर्तित होता है एसा मनो विज्ञान मानता है यानि ध्वनियो कि पुनरावर्तिता बढी लेकिन सभी जंगली प्राणी एक ही ध्वनियो से नही भागते यानि हरेक प्राणी के लिए अलग-अलग ध्वनियो का प्रयोग किया होगा यह बाते प्रयत्न और भूल के जरिए शीखि होगी । इस तरह मानव ने ध्वनियो का इस्तमाल करने लगा ।
समूह कार्य मे समूससमूह में में जब शिकार करने जाते होंगे तब शिकार को पकडने पर उसका पिछा करने पर विभिन्न प्रकार की ध्वनियो का प्रयोग करते होंगे ।
भावो को व्यक्त करने में रोना हंसनाजब शिकारहंसना चिल्लाना, डरना इन सारी बातो पर वह अलग अलग प्रकार की ध्वनियो का उपयोग करता होगा जो कि वह आज भी कर रहा है । करने जाते होगे
ध्वनि के प्रयोग ने मानव को सुरक्षा  एकता एवं सरलता दी यानि ध्वनि को उसने ज्यादा उपयोग करने शरू करे होंगे इस प्रकार मानवी ध्वनियो को व्यवहारमें प्रयोग करना शीख गया उसने शायद एसे ही एक युग यानि 1000 साल से भी ज्यादा साल व्यवहार किया होंगा ।
शब्द रचना- ध्वनियोका उच्चारण एवं प्रयोग तो समज में आ सकता है क्योंकि वह तो प्राणियो में भी दिखाई देता है लेकिन ध्वनियो को जोडना कैसे शीखे होंगे यह बात महत्वपूर्ण बनी रहती है । शब्द रचना के संदर्भ में थोडे तर्क यहां प्रस्तुत है ।
प्राणियो से प्राणी भी ध्वनियो को जोड सकते है यानि कि म्याव- म्याव, हींसी-हींसी, मख्कियो की ध्वनिया, भौ-भौ, कूहू-कूहू इत्यादि इस तरह वह ध्वनियो को साथ मे  जोडकर बोलना सीखा होगा ।
पर्यावरण से- हवा कि छूम, पानी की कल-खल, पथ्थर की टक-टक एसे वह ध्वनियो को जोडना शीखा होगा
आंतर सूझ के जरिए नइ ध्वनियो का सृजन करना शायद उसने कुछेक शब्द अपने बनाए होंगे और इस तरह वह शब्द बनाना एवं बोलना शीख गया होंगा
समस्या यह है इसके पास सार्थक शब्द नहीं थे उसके पास बहोत ज्यादा शब्द नहीं थे शायद केवल 100 के आसपास शब्द हो और इतने से भाषा नहीं बनती । लेकिन इस बात का आनंद होना चाहिए कि मानव ने भाषा शीखने की ओर कदम रख दिए थे ।
सार्थक शाब्द पर जाए उससे पहले  एक बात पर ले जाना चाहूंगा कि मानव टोलियो में रहता था शायद टोलि 50-60 कि हो या इससे भी कम की कइ टोलिया थी । मानव बस्ति कम होंगी पूरे विश्व मे शायद 20000 जितने मानव हो यदि इन्हे 50 की की एक टोली कक ट से भाग दे तो  400 जितनी टोलिया पूरे विश्व में रहीं होंगी यदि इसे सात खंडो में विभाजित किया जाए तो 58 जितनी टोली एक खंड मात्र में आती है कुछ खंडो को बाद करे कि शायद वहा जिवन नहीं था तो एसे 5 खंड निकल सकते है इस हिसाब से 80 टोलिया एकजितनी टोलिया एक खंड में हो सकती है । खंड टोलियो यानि कि यह अर्थ निकाल सकते है कि टोलिया शायद ही कभी मिलती हो सभी टोलियो के अनुभव अलग- अलग थे यानि उनके शब्द भी अलग- अलग तो कुछ शब्द मिलते जुलते । जब टोलिया शिकार की खोज में दूर निकल जाति और किसी अन्य टोलियो से उनकी मुलाकात होती होगी तो वह खतरनाक होती होगी । युद्ध का माहोल होगा दोनो को नेता आमने सामने लडेंगे जैसे प्राणियों में हमें देखने को मिलता है । उस युद्ध में कमजोर नेता मारा जायेगा या भगाया जायेगा या वह शरणार्थी बन जाता होंगा जैसा प्राणियो में भी देखने को मिलता है । और इस तरह एक टोलि का दूसरी टोली में समावेश हो जाता है भाषा को यहा मजबूति मिलती है क्यों कि दोनो टोलियो के पास कुछ नये शब्द थे मान लिजिए के 100-100 शब्द उसमे कुछ समान निकले यानि 70 बस त इस तरह उसका 20 शब्दो की वृद्धि हुइ इस तरह  समूह भी बढा और शब्द भी बढे । जिस तरहजिस तरह वह ध्वनियो से प्राणियो को भगाने का काम करता था,  शिकार पर प्रयोग करता था उसी समय वह इन निरर्थक शब्दो का भी प्रयोग करते होंगे । यानि शब्दो का भी वही प्रयोग रहा होगा जो ध्वनियो का प्रयोग रहा होगा ।
अर्थहीन शब्दो की पुनरावर्ती के कारण वह रूढ बन गये यानि वह सहज बन गये । जैसे कि उसका कोइ अर्थ नही था लेकिन वह परिस्थितिया उत्पन्न होने पर स्वतः ही वे शब्द निकल जाया करती जैसे की कुत्ते को भागाने के लिए कि शब्द, और यही बात शब्द को अर्थ प्रदान कर गई मानव ने अर्थ विहीन शब्दो से शायद एक युग व्यवहार चलाया हो लेकिन वह  इसी कारण रूढ बने ।लंबे समय तक के प्रयोग एवं बारंबारिता के कारण शब्द रूढ बने जब शब्द रूढ बन जाते है तो अर्थ प्रस्तुत करने लगते है जैसे कुत्ते को देखकर वं कुत्ते को भौंकते समय मानवने भी सामने भोंकना शरू किया । अब वह कुत्ते को देखकर भौ-भौ बोलेगा । टोलिया भी भौ-भौ बोलेगी । अब समय रहते भौ-भौ कुत्ते का अर्थ प्रस्तुत करने लगा । मानव समझने लगा कि भौ- भौ यानि कुत्ता .। टोलिया कुछछ टोलिया शीकार करने जाति होगी कुत्ते को देखती होगी तब वह भौ-भौ बोलता होगा उसी तरह हर प्राणी को देखकर, प्राणी की आवाज की नकल कर , या उसे डराने के लिए जिस ध्वनियो का प्रयोग किया उस ध्वनियो का पुनरार्तन हुआ जेसे शेर प्राप्राणी को डराने के लिए मान लिजिए कि चातु ध्वनि का प्रयोग किया हो तो जबभी उस प्राणी को डराना होगा वह चातु-चातु एसे जोर से बोलते होंगे । समयसमय रहते शेर की पहचान बनी वह थी चातु । जब भी मानवने शेर को देखा बोल उठे चातु वह सही था क्योंकि वह रूढ बन गया था इस तरह डराने के भाव से जो ध्वनिया निरर्थक थी वह ध्वनिया पहचान बनी अर्थ प्रकट करने लगी । उस समयय वह 120 शब्द जो निरर्थक थे वह सार्थक बने और अब मानव मानव को को को  कोपहचान बता सकता था ।  हमे यह बात यहां याद रखनी चाहिए कि समझ शक्ति भी मानव में विकसित हुइ थी जैसे कि चिल्लाने कि आवाज से उसे पता चलता था कि  कोइ मुसिबत में है जैसे प्राणियो में देखने को मिलता है । उसी तरह इत्यादि भावो कि समज उसमें थी ये बाते उसे यहा काम आई । एसा है तो एसा ही होगा इस प्रकार का तर्क वह कर सकता था । एसी आवाज है तो वह शेर है एसी समज उसमे थी ।
पहचान एवं थोडे से सार्थक शब्दोने उन्हे सतर्क किया जैसे वह पहले शेर को देखकर भाग जाता था उसके बाद उसकी आवाज को देखकर उसके बाद सिर्फ चातु नाम सुनकर क्योकि उसे पता चल गया कि चातु यानि शेर ।इसी तरह आसपास की हरचीज जहा पर ध्वनिया उत्पन्न हुइ थी उसने उसी हिसाब से नाम रख दिया ।
जेसे नदी के पानी को शायद खल-खल कह दिया हो या वहा पर कोइ घटना यघटी हो पत्थर गिरा हो । दो शेरो कि लडाई हुइ हो एसी कोइ घटना जिसमें से ध्वनि निकली हो तो वह ध्वनि उसे याद होगी जब भी वह उस स्थान पर गया होगा उसे वह घटना याद आयी हो और उसे और साथ में वह ध्वनि भी याद यी होंगी बार बार एसी घटना के पुनरावर्तन से उस स्थान का नाम उस ध्वनि से बना जो नदी से बिलकुल जुडता न हो इस तरह नदी के पानी अलग-ध्वनि होने के बावजूद उसके लिए अलग ध्वनि अर्थ  लेकर  आयी कुछ टोलियो ने शायद पानी की मूल ध्वनियो की पुनरावर्ती कि हो जब वह स्थाई बना तो उसके पास काफी ध्वनियाँ थी । अब उसके पास केवल ध्वनिया नही बल्कि अर्थपूर्ण ध्वनिया थी और उसी के सहारे उसने अपना व्यवहार चलाया हो और आगे की आज की भाषा कि रचना धीरे-धीरे सर्जन हुइ हो ।

पाठक अपनी बात कॉमेन्ट करके बता सकते है अर्थपूर्ण शब्दो के बाद वाक्य एवं व्याकरणिय ढांचा कैसे बना उस पर अपने विचार रख सकते है । क़मेन्ट जरूर करे ।

1 comment:

  1. Tamaro aa blog hoogle ma top10 number e rank kare toy pan and kem nathi?
    Plzz javan apjo.

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