शिक्षा और जिवन घडतर
जिवन घडतर क्या है ? एक बात कि जिवन जिने मे मददरूप दूसरे समाज के अनुरूप एसा व्यक्ति हो तो हम कह
सकते है कि उसका जिवन घडतर हो गया । इसी बातको यदि जिवन घडतर माना जाये तो शिक्षा
कि क्या जरूरत । इतनी सी बात के लिए शिक्षा पर जिम्मेवारी डालना शिक्षा के अपमान
समान होगा ।जिसने कोइ शिक्षा नही लि क्या उसका जिवन घडतर नही हुआ होगा । यदि उसका
जिवन घडतर होता है तो एसा मानना गलत नही होगा कि जिवन घडतर के लिए शिक्षा की कोइ
जरूरत नही है । शिक्षा के बिना भी जीवन घडतर हो सकता है । एक कुत्ता किसी स्कूल
में नही जाता फिर भी अपना जिवन पसार कर लेता है । खून कर दे वैसा झगडा तो वह
कुत्ता कभी नही करता । तो हम कह सकते है एक कुत्ते का भी जिवनघडतर बिना किसी रकझक
के हो जाता है । कुदरतने हरेक प्राणी को
जिवन घडतर का ज्ञान दिया है वह किसी को सिखाना नही पडता । फिर भी हम जिवनघडतर के लिए लगे रहते है । इतना ही नही जिवनघडतर पर
सेमिनार भी करते रहते है ।
शिक्षा पर जिम्मेवारी डालने से पहले हमे जिवनघडतर को समझना आवश्यक है ।
जिवनघडतर को समझने से पहले थोडी संभावना देख लेते है संभावना 1 मान लिजिए कि किसी
व्यक्ति को इन्जिनीयर सिखाइ गइ उसे पहले से मूल्य शिक्षा शिखाई गई सभी जगह वाह
वाही होती रही लेकिन उसे एक जगह जाना पडा वहा इसी इन्जिनीयर की कोइ जरूरतनही थी
वहा मजदूर काम की ज्यादा जरूरत थी । वहा तो इन्जिनीयर को मारते है । झगडा किये
बिना हक नही मिलता, खाना नही मिलता लेकिन वह उस जगह को ठेड नही सकता मानो उसकी कोइ
मजबूरी हो तो क्या फिरभी अपनी शिक्षा के अनुसार ही चलेगा । गाँधी का उदाहरण लेते
है उसके बचपन वह चारी करते थे आदि कइ बाते फिर भी वह एक मूल्यवान के रूप में उभर के सामने आये ।
उन्होने उस शिक्षा में अभ्यास किया जिस शिक्षा को आज कइ लोग गालिया दे रहे है
मेकोलो शिक्षा में ही गाँधीने अभ्यास किया अरे डॉ.भीमरावने भी तो उसी शिक्षा में
अभ्यास किया फिर भी महात्मा के रूप में उभर कर सामने आये । मेकोले शिक्षा के विषय
में एसा कहा जाता रहा है कि उसमें मूल्य शिक्षा का कोइ एजन्डा नही था । यदि कोइ एजन्डा
ही नही था तो जिवनघडतर कैसे सम्भव हो सका । जिवनघडतर सम्भव हो सका इसका मतलब यह है
कि शिक्षा का कोइ प्रभाव नही था । यदि शिक्षा का प्रभाव है तो हमें यह मानना पडेगा
कि मेकोले शिक्षा व्यवस्था से जिवनघडतर सम्भव होता था यानि देश हित मे वह शिक्षा
व्यवस्था थी । मगर एसा हम मान नही सकते । जिवनघडतर कैसे होता है यह हमें जानना
चाहिए । किन कारणो से जिवनघडतर होता है यह भी हमें जानना चाहिए और ये सारे विषय
संशोधन के विषय बन जाते है तभी हम कोइ ठोस परिणाम पर पहूच सकेंगे । और तब हम कह
सकते है कि एसा करो तो जिवनघडतर होगा । मगर वर्तमान समय में जो तुक्के बाजी हो रही है उससे समाज का उद्धार नही
हो सकता । कोइ चिज अच्छी होती है हमें पसंद
आति है तो वह सही नही बन जाति । सही बाते पसंद हो ये जरूरी नही ।
शिक्षा से तात्पर्य यह समजना है कि औपचारिक शिक्षा । परिभाषा से बांधना जरूरी
था वरना शिक्षा को पकडना आसान नही था । जिवन घडतर कैसे किया जाये इसकी कोइ सफल
पद्धति आज तक खोजी नही गइ है । दूसरी बात यह कि जिवन घडतर शिक्षा से कभी संभव हो
चूका नही है । जिवन घडतर का दावा करने वाली शिक्षा संस्था के एसे छात्र आपको मिल
जायेंगे कि उसका जिवन घडतर हुआ ही न हो । प्रक्रिया से भी महत्वपूर्ण परिणाम होता
है । परिणाम ही बताता है कि आपकी प्रक्रिया सही थी या गलत । जिवनघडतर के संदर्भ
में परिणाम असमंजसपूर्ण आते दिखाइ देते है कभी सही तो कभी उल्टा हम निष्कर्ष के
रूप में नही कह सकते है कि यह जिवनघडतर कि शिक्षा के कारण एसा हुआ ।कुछ लोग कहते
है कि जिवनघडतर कि शिक्षा देनी चाहिए तो क्या आज तक जिवनघडतर कि शिक्षा नही दि गइ
है .। सदियो से जिवनघडतरकि शिक्षा दी जाति है लेकिन हम यह नही स्वीकार करनाचाहते
कि शिक्षा से जिवनघडतर संभव नही हो सकता क्योकि शिक्षा के विरूद्धमें हम कुछ सुनना
नही चाहते । यदि हम ऐसा कह रहे है कि जिवनघडतर कि शिक्षा होनी चाहिए तो इसका मतलब
यह होगा कि आज तक जिवनघडतर कि शिक्षा नही दि गई है इसिलिए इसकी मांग ऊठी है । मगर
यह बात सही नही है तो हमेंएसी मांगे भी नही रखनी चाहिए ।
मेरे पडोस में एक लडका रहता है उसका एक भाई भी है । दोनो कुछ नही पढे है । उसे
कुछ भी नही याद रहता सामान्य भी याद नही रहतातो वह पढ नही सके । लेकिन वह आदर्श
जिते है । उसके घ जाओ वह आपका स्वागत करते है । सब की हेल्प करने में वे आगे रहते
है । जो भी काम कहो वह कर देते है । इतने अच्छे है कि पढो लिखो को शर्म आ जाये ।
घर का सारा काम वह दोनो करते है । पानी भरना, रोटी बनाना आदि । लेकिन उसे शिक्षा
नही मिली है । लेकिन गाँव दूसरे कइ लडके है जो काफी पढे है लेकिन वह बडो का दर नही
करते । किसी का भी अपमान करदेते है । चलो यह तो सामान्य उदाहरण थे आपको भारी
उदाहरण देते है । आप किसी दुकान पे जाते है मान लिजे कि वह शर्ट की दुकान है तो वह
दुकानदार जो कही पढने नही गया होगा फिर भी आपका स्वागत करेगा । आपसे मिठी बोली से
बात करेगा ।कितने भी ग्राहक क्यो न जाये
वह अपने चहेरे से हंसी नही जाने देता । आपको पानी पिलायेगा आपको चाय का भी पूछेगा
। आपके जाते ही पंखे षरू कर देगा आदि । ग्राहक को खुश कर देता है । लेकि एक
शिक्षित कलेक्टर या मामलतदार, इन्जिनीयर आदि
कि ञफिस में जाना क्या वह आपका स्वागत करेगा, नही । आपको चाय का पूछेगा,
नही । आपको पानी का पूछेगा, नही । वह ऑफिस देर से आयेगा । घर जल्दि जायेगा । ठीक
से उत्तर नही देगा । और दूसरी बात यह कि भ्रष्टाचार के आरोप भी इन शिक्षितो पर लग
चूके है । यह सब देखते है तो लगता है कि शिक्षा से जिवनघडतर होता तो नही है लेकिन
शिक्षा से जिवनघडतर का ह्रास होता है । शिक्षा जिवनघडतर के मामले मे पूरी बदनाम
दिखती है । यदि शिक्षा को इस बदनामी को लेकर नही आगे बढना है तो उसे या तो संशोधनित मार्ग अपनाने होगे या जिवनघडतर कि बात को छोड देनी होगी
। उसे यह स्वीकार करना होगा कि जिवनघडतर करना मेरे बस की बात नही है ।
जिवनघडतर
एसी बात है जो हमें मोह लेती है । शिक्षा
एवं सामाजिक चिंतक को तो वह अति प्रिय लगती है । तो वह सब कहते रहे है कि जिवनघडतर
करो भइ डिवनघडतर तो होना ही चाहिए । अपेक्षा कोइ बुरी चिज नही है, अच्छी चिजो की
अपेक्षा रखना कोइ बुरी बात नही है । गर वह
काम शिक्षा ही कर सकती है एसा कब से मानने लगे वह खुद नही जानते होते । शिक्षा के
सिवा कोइ एसा मार्ग दिखता भी नही कि वह जिवनघडतर कर सके तो मनोविज्ञान की भाषा में
द्राक्ष तक पहूचा न जाये
तो कह दिजिए वह खट्टी है । अपने मन को तो मना लिजिए । परिणाम नही मिलता है मगर हम
प्रयत्न तो करते है एसा समज कर हम लोग खुश रहते है और कहते रहते है जिवनघडतर कि
शिक्षा होनी चाहिए । इतना ही नही काफी संस्था तो एसी भी है जो दावा करती है कि हम
जिवनघडतर कि शिक्षा देते है । बात सही होगी लेकिन उनके हिसाब से, बाकीबबबबाकी वह उनका केवल
प्रयत्न होता है परिणाम नही । परिणाम तभी असरकारक माना जायेगा जब वह साठ प्रतिशत
से ज्यादा हो । एसा आज तक कभी नही बन पाया है तो उन सब का दावा खयाली पुलाव समान
है । जिवनघडतर एसे देखे तो एक
मूल्य है और मूल्य बदलत रहते है ।
जिवनघडतर कि शिक्षा से क्या तात्पर्य निकलता है । उस शिक्षा
का परिणाम क्या हो सकता है । मान लिजिए कि एसी शिक्षा या पद्धति का आविष्कार हो
गया और सभी का जिवनघडतर हो गया । सभी क समान हो गये । तो क्या कुदरत में वह टिक
सकेंगे । कुदरत में इन्सान का वजूद तभी है जो उसमें व्यक्तिगत भिन्नता है । यदि एक
जैसा इन्सान है तो उसका वजूद खतरे में पड सकता है । यह एक कुदरती सिद्धांत है । इस
सिदधांत के अनुसार भी जिवनघडतर नही करना चाहिए ।
कुदरती तौर पर अगर समझे तो हरेक जीव परिस्थिति के अनुसार अपने
आप में बदलाव लाता रहता है । उसके लिए वह जरूरी होता है । इसके परिणाम ही
उत्क्रांतिवाद होता है । मानवी के साथ भी वैससा ही होता है । परिस्थिति का वह
गुलाम रहता है । जिवन कैसे जिना व्यक्ति
अपने आप तय करता है । अन्त मे गुजराती कि पंक्ति कह समाप्त करूंगा
कोइ कहे ना कहे एनाथी शो फरक पडे आपणे सारा थवु ए आपणी
मरजीनी वात छे.
इसका मतलब कि किसी के बोध से कोइ सुधरता नही है मनुष्य तभी
सुधर सकता है जब उसकी सुधरने कि इच्छा हो दूसरो कि मरजी नही चलती ।
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