Friday, 22 June 2018

क्या शिक्षा पर जिवनघडतर कि जिम्मेवारी डालनी चाहिए ?


क्या शिक्षा पर जिवनघडतर कि जिम्मेवारी डालनी चाहिए ?
 शिक्षा विशाल अर्थ लिये हुये है तो हम उसे यहा बांध देते है यहा सिर्फ शिक्षा का औपचारिक अर्थ लेना है । औपचारिक शिक्षा ही यहा पर शिक्षा है । शिक्षा का विकास क्यू करना चाहिए यह भी एक बडा प्रश्न है तो फिर उसे क्या करना चाहिए या नही करना चाहिए यह तो बहूत दूर कि बात है । पहले तो यह तय करना होगा कि शिक्षा क्यो होनी चाहिए ? फिर सारे प्रश्न के उत्तर  मिलते रहेंगे ।  मनुष्यने जो आज तक कुछ हासिल किया है उसका श्रेय मनुष्य शिक्षा को देता है ।  वह कहता रहता है शिक्षा के परिणाम इतनी सारी खोजे हो सकी ।  जो कि यह बाते बिना सत्यापन के वह कह रहा है । शिक्षा हजारो सालो से मनुष्यने आविष्कार कर लिया है लेकिन आधुनिक खोजे थोडे सालो पूर्व कि है । तो प्रश्न यह उठता है कि हजारो सालो तक शिक्षा से मनुष्य का उतना विकास क्यो न हो सका । यदि आज वह इतनी असरकारक है तो पहले थोडी तो असरकारक होनी चाहिए । लेकिन एसा हमे देखने को मिलता नही है । जो कि हमें हमारा पूरा इतिहास ठिक से पता नही है तो कुछ भी कहना ठीक नही होगा ।
मनुष्य ऐसा मानता है कि शिक्षा से जिवनघडतर होता है । तो वह शिक्षा से आस लगाये बैठता है । जो कि शिक्षा के पास कइ सारी बातो को लेकर मनुष्य आस लगाये बैठा है । शिक्षा पर काफी जिम्मेवारी है । लेकिन जिवनघडतर कि भी जिम्मेवारी यह बात थोडी सी अजीब लगती है ।
आप को लगेगा कि जिवनघडतर के संदर्भ में शिक्षा से आस नही रखेंगे तो किससे रखेंगे । आपको एसा सवाल हुआ होगा । तो आप शायद जिवनघडतर को बहोत ज्यादा महत्व दे रहे है । आप इसे इतना ज्यादा महत्व दे रहे है कि आपको जिवनघडतर बहोत ही महत्व पूर्ण दिखाइ दे रहा है। यदि जिवनघडतर महत्वपूर्ण है तो क्यो न हम आदिमानव बन जाये । जिसमे हमें भाषा आति नही थी। सोने का मोह था नही । खाना खाते और घूमते रहते । न किसीसे झगडा न किसीसे कानाफूसी। अरे विश्वयुद्ध तो कभी नही होगा । पर्यावरण का प्रदूषण कभी नही होगा । गरीबी नही रहेगी । आर्थिक मंदी कभी नही होगी । धर्मो के झगडे कभी नही होंगे । इससे अच्छा जिवनघडतर किसे कहेंगे । लेकिन आप आदिमान नही बनना चाहेगे । तो उसका मतलब यह भी होता है कि आप इस जिंदगी को छोडकर जिवनघडतर नही चाहते । पहले आपको आज का जिवन भी चाहिए और जिवनघडतर भी चाहिए । फिर भी जिवनघडतर को महत्व देते है । और महत्व देते है इसलिए आप शिक्षा से आस रखे बैठे हो । यदि हम जिवनघडतर को महत्वपूर्ण न माने तो उसे शिक्षा से दूर रखेगे । लेकिन जिवनघडतर को महत्वहीन कैसे मान सकते है । यह भी एक महत्वपूर्ण सवाल है ।  इन्सानो के पास उन्नत दिमाग है लेकिन बाकि सभी प्राणियो के पास उन्नत दिमाग नही है फिरभी वह इन्सानो की तरह ही जिवन जीते है और वह भी बिना टेन्शन के । आज कि स्थिति एसी हो गइ है कि टेन्शन ही जिन्दगी बन गइ है ।और इसे हम जिवनघडतर कहते है अरे तुमसे अच्छा तो अन्य प्राणी अच्छा जिते है । हमारे पास दिमाग है तो हम सोचते है कि जिवनघडतर के लिए अलग से सोचना चाहिए इसीलिए तो हमारा दिमाग उन्नत है तो ऐसा सोचना क्या सही होगा ? नही न हम कम दिमाग से अच्छा जीवन व्यतित कर सकते है । उत्क्रांति में मानवी दिमाग का विकास मानवी जिवनघडतर के लिए नही हुआ है । जिवनघडतर कि जरूरत होती तो मानवीय दिमाग इतना विकसित नही होता । इससे इतना कह सकते है कि जिवनघडतर कम दिमाग वाले का भी हो सकता है । उसके लिए उन्नतता कि आवश्यकता नही है । जो बात आसान है जो बात सहज है जो बात हमारे कन्ट्रोल में नही है इसे हम क्यो  अपनानेमें तुले है । ऐसी गौण बाते शिक्षा पर क्यू लादी जाये शिक्षा को हमें मह्तवपूर्ण कार्य देने चाहिए । समाज कि काफी समस्या है उन समस्या के निराकरण का काम शिक्षा देना चाहिए एसी क्षुल्लक जो एक सामान्य प्राणी भी कर सके एसी बातो में शिक्षा को उलजना नही चाहिए ।

शिक्षा और जिवनघडतर


शिक्षा और जिवन घडतर
जिवन घडतर क्या है ? एक बात कि जिवन जिने मे मददरूप दूसरे समाज के अनुरूप एसा व्यक्ति हो तो हम कह सकते है कि उसका जिवन घडतर हो गया । इसी बातको यदि जिवन घडतर माना जाये तो शिक्षा कि क्या जरूरत । इतनी सी बात के लिए शिक्षा पर जिम्मेवारी डालना शिक्षा के अपमान समान होगा ।जिसने कोइ शिक्षा नही लि क्या उसका जिवन घडतर नही हुआ होगा । यदि उसका जिवन घडतर होता है तो एसा मानना गलत नही होगा कि जिवन घडतर के लिए शिक्षा की कोइ जरूरत नही है । शिक्षा के बिना भी जीवन घडतर हो सकता है । एक कुत्ता किसी स्कूल में नही जाता फिर भी अपना जिवन पसार कर लेता है । खून कर दे वैसा झगडा तो वह कुत्ता कभी नही करता । तो हम कह सकते है एक कुत्ते का भी जिवनघडतर बिना किसी रकझक के हो जाता है । कुदरतने  हरेक प्राणी को जिवन घडतर का ज्ञान दिया है वह किसी को सिखाना नही पडता ।  फिर भी हम जिवनघडतर के  लिए लगे रहते है । इतना ही नही जिवनघडतर पर सेमिनार भी करते रहते है ।
शिक्षा पर जिम्मेवारी डालने से पहले हमे जिवनघडतर को समझना आवश्यक है । जिवनघडतर को समझने से पहले थोडी संभावना देख लेते है संभावना 1 मान लिजिए कि किसी व्यक्ति को इन्जिनीयर सिखाइ गइ उसे पहले से मूल्य शिक्षा शिखाई गई सभी जगह वाह वाही होती रही लेकिन उसे एक जगह जाना पडा वहा इसी इन्जिनीयर की कोइ जरूरतनही थी वहा मजदूर काम की ज्यादा जरूरत थी । वहा तो इन्जिनीयर को मारते है । झगडा किये बिना हक नही मिलता, खाना नही मिलता लेकिन वह उस जगह को ठेड नही सकता मानो उसकी कोइ मजबूरी हो तो क्या फिरभी अपनी शिक्षा के अनुसार ही चलेगा । गाँधी का उदाहरण लेते है उसके बचपन वह चारी करते थे आदि कइ बाते फिर भी वह  एक मूल्यवान के रूप में उभर के सामने आये । उन्होने उस शिक्षा में अभ्यास किया जिस शिक्षा को आज कइ लोग गालिया दे रहे है मेकोलो शिक्षा में ही गाँधीने अभ्यास किया अरे डॉ.भीमरावने भी तो उसी शिक्षा में अभ्यास किया फिर भी महात्मा के रूप में उभर कर सामने आये । मेकोले शिक्षा के विषय में एसा कहा जाता रहा है कि उसमें मूल्य शिक्षा का कोइ एजन्डा नही था । यदि कोइ एजन्डा ही नही था तो जिवनघडतर कैसे सम्भव हो सका । जिवनघडतर सम्भव हो सका इसका मतलब यह है कि शिक्षा का कोइ प्रभाव नही था । यदि शिक्षा का प्रभाव है तो हमें यह मानना पडेगा कि मेकोले शिक्षा व्यवस्था से जिवनघडतर सम्भव होता था यानि देश हित मे वह शिक्षा व्यवस्था थी । मगर एसा हम मान नही सकते । जिवनघडतर कैसे होता है यह हमें जानना चाहिए । किन कारणो से जिवनघडतर होता है यह भी हमें जानना चाहिए और ये सारे विषय संशोधन के विषय बन जाते है तभी हम कोइ ठोस परिणाम पर पहूच सकेंगे । और तब हम कह सकते है कि एसा करो तो जिवनघडतर होगा । मगर वर्तमान समय में जो  तुक्के बाजी हो रही है उससे समाज का उद्धार नही हो सकता । कोइ चिज अच्छी होती है हमें पसंद  आति है तो वह सही नही बन जाति । सही बाते पसंद हो ये जरूरी नही ।
शिक्षा से तात्पर्य यह समजना है कि औपचारिक शिक्षा । परिभाषा से बांधना जरूरी था वरना शिक्षा को पकडना आसान नही था । जिवन घडतर कैसे किया जाये इसकी कोइ सफल पद्धति आज तक खोजी नही गइ है । दूसरी बात यह कि जिवन घडतर शिक्षा से कभी संभव हो चूका नही है । जिवन घडतर का दावा करने वाली शिक्षा संस्था के एसे छात्र आपको मिल जायेंगे कि उसका जिवन घडतर हुआ ही न हो । प्रक्रिया से भी महत्वपूर्ण परिणाम होता है । परिणाम ही बताता है कि आपकी प्रक्रिया सही थी या गलत । जिवनघडतर के संदर्भ में परिणाम असमंजसपूर्ण आते दिखाइ देते है कभी सही तो कभी उल्टा हम निष्कर्ष के रूप में नही कह सकते है कि यह जिवनघडतर कि शिक्षा के कारण एसा हुआ ।कुछ लोग कहते है कि जिवनघडतर कि शिक्षा देनी चाहिए तो क्या आज तक जिवनघडतर कि शिक्षा नही दि गइ है .। सदियो से जिवनघडतरकि शिक्षा दी जाति है लेकिन हम यह नही स्वीकार करनाचाहते कि शिक्षा से जिवनघडतर संभव नही हो सकता क्योकि शिक्षा के विरूद्धमें हम कुछ सुनना नही चाहते । यदि हम ऐसा कह रहे है कि जिवनघडतर कि शिक्षा होनी चाहिए तो इसका मतलब यह होगा कि आज तक जिवनघडतर कि शिक्षा नही दि गई है इसिलिए इसकी मांग ऊठी है । मगर यह बात सही नही है तो हमेंएसी मांगे भी नही रखनी चाहिए ।
मेरे पडोस में एक लडका रहता है उसका एक भाई भी है । दोनो कुछ नही पढे है । उसे कुछ भी नही याद रहता सामान्य भी याद नही रहतातो वह पढ नही सके । लेकिन वह आदर्श जिते है । उसके घ जाओ वह आपका स्वागत करते है । सब की हेल्प करने में वे आगे रहते है । जो भी काम कहो वह कर देते है । इतने अच्छे है कि पढो लिखो को शर्म आ जाये । घर का सारा काम वह दोनो करते है । पानी भरना, रोटी बनाना आदि । लेकिन उसे शिक्षा नही मिली है । लेकिन गाँव दूसरे कइ लडके है जो काफी पढे है लेकिन वह बडो का दर नही करते । किसी का भी अपमान करदेते है । चलो यह तो सामान्य उदाहरण थे आपको भारी उदाहरण देते है । आप किसी दुकान पे जाते है मान लिजे कि वह शर्ट की दुकान है तो वह दुकानदार जो कही पढने नही गया होगा फिर भी आपका स्वागत करेगा । आपसे मिठी बोली से बात करेगा ।कितने भी ग्राहक क्यो न  जाये वह अपने चहेरे से हंसी नही जाने देता । आपको पानी पिलायेगा आपको चाय का भी पूछेगा । आपके जाते ही पंखे षरू कर देगा आदि । ग्राहक को खुश कर देता है । लेकि एक शिक्षित कलेक्टर या मामलतदार, इन्जिनीयर आदि  कि ञफिस में जाना क्या वह आपका स्वागत करेगा, नही । आपको चाय का पूछेगा, नही । आपको पानी का पूछेगा, नही । वह ऑफिस देर से आयेगा । घर जल्दि जायेगा । ठीक से उत्तर नही देगा । और दूसरी बात यह कि भ्रष्टाचार के आरोप भी इन शिक्षितो पर लग चूके है । यह सब देखते है तो लगता है कि शिक्षा से जिवनघडतर होता तो नही है लेकिन शिक्षा से जिवनघडतर का ह्रास होता है । शिक्षा जिवनघडतर के मामले मे पूरी बदनाम दिखती है । यदि शिक्षा को स बदनामी को लेकर नही गे बढना है तो उसे या तो संशोधनित मार्ग पनाने होगे या जिवनघडतर कि बात को छोड देनी होगी । उसे यह स्वीकार करना होगा कि जिवनघडतर करना मेरे बस की बात नही है ।
जिवनघडतर एसी बात है जो हमें  मोह लेती है । शिक्षा एवं सामाजिक चिंतक को तो वह अति प्रिय लगती है । तो वह सब कहते रहे है कि जिवनघडतर करो भइ डिवनघडतर तो होना ही चाहिए । अपेक्षा कोइ बुरी चिज नही है, अच्छी चिजो की अपेक्षा रखना कोइ बुरी बात नही है ।  गर वह काम शिक्षा ही कर सकती है एसा कब से मानने लगे वह खुद नही जानते होते । शिक्षा के सिवा कोइ एसा मार्ग दिखता भी नही कि वह जिवनघडतर कर सके तो मनोविज्ञान की भाषा में द्राक्ष तक पहूचा न जाये तो कह दिजिए वह खट्टी है । अपने मन को तो मना लिजिए । परिणाम नही मिलता है मगर हम प्रयत्न तो करते है एसा समज कर हम लोग खुश रहते है और कहते रहते है जिवनघडतर कि शिक्षा होनी चाहिए । इतना ही नही काफी संस्था तो एसी भी है जो दावा करती है कि हम जिवनघडतर कि शिक्षा देते है । बात सही होगी लेकिन उनके हिसाब से, बाकीबबबबाकी वह उनका केवल प्रयत्न होता है परिणाम नही । परिणाम तभी असरकारक माना जायेगा जब वह साठ प्रतिशत से ज्यादा हो । एसा आज तक कभी नही बन पाया है तो उन सब का दावा खयाली पुलाव समान है । जिवनघडतर एसे देखे तो एक मूल्य है और मूल्य बदलत रहते है ।
जिवनघडतर कि शिक्षा से क्या तात्पर्य निकलता है । उस शिक्षा का परिणाम क्या हो सकता है । मान लिजिए कि एसी शिक्षा या पद्धति का आविष्कार हो गया और सभी का जिवनघडतर हो गया । सभी क समान हो गये । तो क्या कुदरत में वह टिक सकेंगे । कुदरत में इन्सान का वजूद तभी है जो उसमें व्यक्तिगत भिन्नता है । यदि एक जैसा इन्सान है तो उसका वजूद खतरे में पड सकता है । यह एक कुदरती सिद्धांत है । इस सिदधांत के अनुसार भी जिवनघडतर नही करना चाहिए ।
कुदरती तौर पर अगर समझे तो हरेक जीव परिस्थिति के अनुसार अपने आप में बदलाव लाता रहता है । उसके लिए वह जरूरी होता है । इसके परिणाम ही उत्क्रांतिवाद होता है । मानवी के साथ भी वैससा ही होता है । परिस्थिति का वह गुलाम रहता है । जिवन  कैसे जिना व्यक्ति अपने आप तय करता है । अन्त मे गुजराती कि पंक्ति कह समाप्त करूंगा
कोइ कहे ना कहे एनाथी शो फरक पडे आपणे सारा थवु ए आपणी मरजीनी वात छे.
इसका मतलब कि किसी के बोध से कोइ सुधरता नही है मनुष्य तभी सुधर सकता है जब उसकी सुधरने कि इच्छा हो दूसरो कि मरजी नही चलती ।

Wednesday, 20 June 2018

अरे प्रतिभा को कब प्रेरणा दोगे ?


अरे टेलेन्ट को कब प्रेरणा दोगे ?
प्रतिभा बहुत ही संवेदन शील होती है । संवेदनशील से तात्पर्य है वह संकोचन का गुणधर्म निबाती है । जैसे लजामणी का छोड उस छोड को जैसे स्पर्श करते हो वह मुरझा जाता है । संवेदन शील जो चीज होती है उसका नाम नही लेना चाहिए ये बात तो हम सब जानते ही है । तो प्रतिभा एसी हती है । लेकिन उसकी विशेषता यह है कि वह जब अपने चरम पर होती है तो संवेदनशील नही होती वह शरूआती दौर में ही संवेदन शील होती है । तो प्रतिभा को चरम तक पहूँचाना चाहिए । चरम तक पहूँचने के लिए उसे प्रेरणा कि काफी जरूरत रहती है ।प्रेरणा मानो उसका उदीपक है । चूँ कि प्रतिभा को प्रेऱणा कि जरूरत रहती है तो वह कैसे भी कर अफनी वह जरूरत पूरी कर लेती है । लेकिन सभी प्रतिभाए अपनी प्रेरणा प्राप्त नही कर सकती और मुरजा जाति है अपने चरम तक नही पहूँच पाती और जीवनभर संवेदनशील बनकर ही रहती है । लेकिन वर्तमान समाज प्रतिभा को प्रेरणा नही दे रहा है ।. वह तो रूपयो को प्रेरणा दे रहा है । रूपया नही तो शादी नही हती । लोन नही मिलती । काम नही मिलता । रूपया नही कोइ अच्छे से बुलाता तक नही । यदि रूपया है तो आपको हजारो करोड की लोन मिल सकती है लेकिन यदि पके पास रूपया नही है तो आपको डेढ लाख की भी लोन नही मिलेगी । प्रतिभा को अपनी प्रतिभा बाहर लानी है लेकिन रूपया नही । प्रतिभा विहिन रूपयो के सहारे प्रतिभावान को काम पर रख रहे है । वास्तव में एसा होना चाहिए था कि जिसके पास प्रतिभा है वह प्रतिभा विहिन को काम देता लेकिन सब कुछ उल्टा है।  वास्तव में गरीब प्रतिभा का कर्ज माफ कर देना चाहिए लेकिन हमारा समाज तो उल्टा है वह तो रूपये वाले प्रतिभा विहिन का कर्ज माफ कर रहा है । इसे मुर्खता नही कहेंगे तो क्या कहेंगे । आप बिना प्रतिभा को कितना भी रूपया दो वह देश को क्या देगा कुछ भी नही अन्त में भाग जायेगा लेकिन यदि आप प्रतिभा युक्त को रूपया देते है तो आपको वह दूगुना करके देता है । देश का विकास करेगा और लोगो को काम मिलेगा । लेकिन समाज तो उल्लू को मदद कर रहा है ।पैसे को इतना मह्त्व दिया जाता है कि समाज में प्रतिभा कि कदर नही होती रूपये कि कदर होती है । और प्रतिभा बिना रूपये कि मुरझा जाति है और हम कहते है हमारा देश मेडल क्यो नही लाता । प्रतिभा को थोडी प्रेऱणा तो मिलनी चाहिए न । लेकिन एसा लगता है जैसे आयोजको का दिमाग सुन्न हो गया हो । क्योकि आयोजको में भी कहा प्रतिभा होती है । प्रतिभा को प्रेरणा देना देश के हित में रहेगा । अमेरिका वाले हमारे प्रतिभा को ले जाते है । दूसरो को कदर है लेकिन अपनो को कदर नही है ।  यदि आप प्रतिभा पहचान नही सकते आप में वह शक्ति नही है तो दूसरो कि सहायता ले लिजिए अन्हे प्रेरित करे जिसमें प्रतिभा है न कि उन्हे जिसके पास केवल रूपया है और खाली दिमाग को पहचाने योग्य कि पहचान करने कि प्रेक्टिस करानी चाहिए क्या आपको शिक्षा कि आवश्यक्ता है कि प्रतिभा को कैसे पहचाना जाये तो आप एसी शिक्षा ले लिजिए देश के हित में जरूरी है । बिना प्रेरणा के प्रतिभा अपने चरम तक कभी नही पहूँच पायेगी । उन्हे मदद करे जिसमे नये विचार है नया ज्ञान है आशा है भविष्य मे प्रतिभा को भरपूर प्रेरणा मेलेगी और रूपया प्रतिभा कि और खिंचा चला आयेगा न कि रूपये वालो कि ओर आशा सह अस्तु ।









नये ज्ञान की खोज


नये ज्ञान कि खोज
इन्सानो कि खोजे देखते है तो आश्चर्य़ जरूर होता है । प्रश्न यह उठता है कि दस हजार सालो तक इन्सान का टेलेन्ट शांत क्यो रहा होगा । यह प्रश्न इसलिए उठता है कि इन्सान कुछ सो सालो में इतनी प्रगति कि है कि एसा कह सकते है कि जगत कि पचास प्रतिशत इस सो साल में और पचास प्रतिशतत दस हजार साल में खोज हुइ है । आखिर इन्सानने नया ज्ञान कैसे खोजा होगा । गुरूत्वाकर्षण का  सिदधांत दसहजार सालो तक क्यो ध्यान में नही आया होगा । बात यहा पर ज्ञान की नही मगर नये ज्ञान कि करनी है । मनुष्य का स्वभावन संशोधन करने का रहा है । यदि कोइ पूछे कि यह खोज कैसे संभव बनी तो सीधा जवाब है संशोधन, शोधप्र्कृति । हर एक ज्ञान के पिछे शोध प्र्कृति जरूर नजर आती है लेकिन क्या इन्सान नया कुछ बना सकता है  । क्या इन्सान में वह शक्ति है कि वह नया ज्ञान कि जो जगत में है ही नही वह बना सके । बात को समझने के लिए उदाहरण देखिए
किसी व्यक्ति को केवल जोडा करने का ज्ञान है तो क्या उस ज्ञान के सहारे वह गुना सिख सकता है । शोध करते समय व्यक्ति को योग्य प्रश्न क्यो होते है । वह नये प्रश्न उसने कैसे बना दिए । यदि इन्सान एक ज्ञान एवं शोध प्रकृति के सहारे नया ज्ञान उत्पन्न कर सकता है तो दुनिया का हर व्यक्ति एसा क्यो नही कर सकता ।  दुनिया का हर एक व्यक्ति वैज्ञानिक क्यो नही बन सकता । क्या व्यक्ति अपने अनुभव या ज्ञान का विश्लेण कर नया ज्ञान बना सकता है । क्या आपने कोइ नयी खोज की है तो आपनसे नयी खोज क्यो नही हो पाई ।
मान लिजिए कि एक व्यक्ति को एक कमरे में बंद कर दिया जाये । उसे दुनिया से कट कर दिया जाये । माने कि उसे केवल ध्यान करने को कहा जाये । उसे न पुस्तके दी जाये । उसे न मोबाइल न कम्प्यूटर इत्यादि कुछ भी नही केवल सोचने कि शक्ति दी जाये । एक बंद कमरे में बैठा अकेला दुनिया से तूटा हुआ व्यक्ति क्या महिने के बाद इतना ही जानता है जितना वह महिने पहले जानता था । कि उसे नया ज्ञान प्राप्त हुआ होगा । यदि नही तो जंगल में तपस्वीयो को एक गुफा के अंदर ज्ञान कैसे प्राप्त हो जाता है । यदि हा तो वह नया ज्ञान आया कहा से । क्या केवल सोचने भर से नये ज्ञान की उत्पति होती है ।
एक वैज्ञानिक ने क्या उसने उस विषय का चिंतन किया इसलिए उसे नया ज्ञान मिला । यदि इतनी बातो से भी समझ में नही आया है तो में आपको एक उदाहरण और देता है । मानलिजिए कि आप के पास एक चाय कि पत्तीया है तो क् आप उसमें से दूध बना सकते है नही न तो आपके पास जिस विषय का ज्ञान ही नही है उस विषय का नया ज्ञान कैसे संभव हो सकता है । संभव नही है । यदि मैने विज्ञान का ज्ञान लिया ही नही है तो उस विषय का नया ज्ञान उत्पन्न कदापि नही कर सकता । एक ज्ञान से असंख्य ज्ञान कैसे संभव हो पाये होंगे । एक ज्ञान को कितना तोडा जा सकता है । उसे कितने संदर्भो में रख सकते है । कइ प्रश्न कर रहा हू क्योकि मैने कभी कोइ नयी खोज नही कि है । तो प्रस्न होते रहते है । प्रश्न इसलिए होते है कि मेरे द्वरा क्यो कोइ खोज नही होती है । क्या किसी चिज को देखे बिना उसके विषय में चिंतन हो सकता है ।
शिक्षा के क्षेत्र में काफी खर्च किया जा रहा है लेकिन आइन्सटाइन जैसा पैदा नही हो पा रहा है । लाखो विद्यार्थीयो में कुछ एक होते है अब्दुल कलाम जैसे जो नयी खोज कर सकते है । एसा क्यू सभी को ज्ञान समान दिया गया है । अब्दुलकलाम कि जैसी बुद्धिमता युक्त छात्र भी होते है उसे वही ज्ञान दिया गया है लेकिन वह अब्दुलकलाम जैसी खोज नही कर पा रहे है । एसा क्यो यानि एक बात तो कह सकते है कि नये ज्ञान कि खोज सभी नही कर सकते है । सभी के पास एक जैसी क्षमता होने के बावजूद, सभी को एक जैसा ज्ञान देने के बावजूद सभी नयी खोज नही कर सकते । अब उस उदाहरण पर आते है जो व्यक्ति महिनो से कमरे में बंद है उसे केवल सोचने कि इजाजत है नया ज्ञान न मिलने के बावजूद भी वह काफी ज्ञान सर्जन करेंगा ।  वह दुनिया से कटा हुआ है फिर भी उसने ज्ञान सर्जन किया इसका मतलब कि ज्ञानउसके अंदर से आया या किसी अज्ञात शक्तिने उसे ज्ञान दिया । कोइ कहता है कि आकाशिक रिकॉर्ड होते है जैसे आज क्लाउड होते है वैसे ब्रह्मांड का क्लाउड होता है । उससे हमारा दिमाग ज्ञान लेता है । वह ज्ञान तभी ले सकता है जब वह उस ज्ञान के भंडार तक पहूंच सके । क्या सभी वह वैज्ञानिक जिन्होने नये ज्ञान की खोज कि वह क्या एसे आकाशिक ज्ञान तक पहूँच गये थे । तो क्या ब्रह्मांड में ज्ञान पहले से मौजूद है । हमे केवल उस तक पहूंचना है । यदि यह बात है तो हमे हमारे समय को इस दिशा में नही लगाना चाहिए । क्या हमें अपने दिमाग को प्रवाहित नही करना चाहिए । प्रश्न काफी है । नये ज्ञान के संदर्भ में कुछ तो खोजबीन करनी ही चाहिए । हमे हाथ धरे बैठना नही चाहिए क्योकि हमारे समय काफी कम है और ज्ञान कापूरा समंदर है । संशोधको को इस विषय में शोध करनी चाहिए और दुनिया को एक उत्तर देना चाहिए। आपकी राय कमेंन्ट कर बता सकते है .

संस्कृत अपनी प्राचिनता खो दे तो क्या होगा ?


यदि संस्कृत अपनी प्राचिनता खो दे तो क्या होगा ?
यह विषय आजकल थोडी सर्चा का बना हुआ विषय है । भारतीयो कि आस्था संस्कृत के साथ रहती जरूर है लेकिन सत्य को भी तो स्वीकार करना ही पडेगा । प्राचिनता का नाम जैसे आता है संस्कृत अपना नाम पुकारने लगती है । आज तक प्राचिनता के संस्कृत का नाता एसा बना हुआ है कि संस्कृत कि हर बात प्राचिन मानी जाति है । संस्कृत को यहाँ तक प्राचिन माना जाता है कि वह दुनिया कि शरूआत से है । देवभाषा के नाम से मानी जानेवाली यह भाषा कहा जाता है कि दुनिया कि प्रथम भाषा है । और यह भी कहा गया है इसी भाषा में प्रथम लिखा गया है । मनोवैज्ञानिक तरिको से सोचे तो प्राचिनता के साथ इन्सानी जुडाव रहता है । प्राचिनता को इन्सान स्वीकर कर लेता है वह भले ही उसे गुलाम बना ले । प्राचिनता इन्सानी दिमाग पर हावी रहती है । यदि कोइ चिज प्राचिन है तो उसमें आस्था ज्यादा बैठती है । इसीलिए हर कोइ अपनी विचारधारा को प्राचिन बतानेमं तुला हुआ सा लगता है । जिससे उसके विचार को बल मिले ।
बात बहुत गंभीर है कि संस्कृत अपनी प्राचिनता खो रही है । अब तक की खोजो ने संस्कृत को कमजोर सा बना दिया है । अगर कोइ नयी खोजे हो और कोइ सबूत मिले तो बात और है लेकिन वेदो के सिवा संस्कृत के पास अपनी प्राचिनता साबित करने का कोइ सबूत नही है । लेकिन बात यह है कि आजकल का मानवी बिना सबूतो के कोइ बात नही मानता । बात ऊठाई है डॉ.राजेन्द्र प्रासादने जो एक भाषा वैज्ञानिक है । उन्होने दावा किया है कि संस्कृत इसा पूर्व कि भाषा नही है । उनका कहना है संस्कृत का कोइ शीलालेख इसापूर्व का नही मिला है । अशोक के जो शिलालेख मिले है वह पालि एवं युनानी भाषा के है । वह तो यहा तक कहते है कि अशोक के शिलालेखो में संस्कृत का कोइ शब्द नही मिलता है इससे साबित होता है संस्कृत इसा पूर्व कि भाषा नही है । इतना ही नही संस्कृत का कोइ लोक साहित्य भी नही मिलता। संस्कृत का कोइ भूमिपृष्ठ भी नही मिलता । मान लिजिए यह बात सत्य हो और सत्य साबित हो जाए तो मुझे वह भेड बकरीयो कि गोपाल कि वह कहानी याद आती है जिसमें गोपाल शेर आया शेर आया एसा झूठ बोलकर लोगो को उल्लू बनाता था जब असली में शेर आया तो किसीने विश्वास नही किया बात यह है कि झूठो कि बात कोइ नही मानता ।  यदि कोइ बात झूठ साबित होती है तो उसकी पूरी बातो को झूठ साबितमाना जाएगा।  भारतीय प्राचिन इतिहास की कहानिया कहा जाता है कि वह सब संस्कृत में लिखि गइ है वह सत्य है प्राचिनता खोने के बाद वह सारी लिखि गइ बाते झूठ मानी जायेगी । जिस साहित्य को इश्वर निर्मित माना गया है उसे कोइ स्वीकार नही करेगा । नये से पूरे इतिहास को गढने कि जरूरत उभर कर सामने आएगी । संस्कृत में लिखि किसी बात को कोइ मानने को तैयार नही होगे । झूठी एसा उपनाम भी संस्कृत को मिल सकता है । सारी चममत्कीरिक बाते अपना अस्तित्व खो देगी । प्राचिनता खोने के बाद कौन उसे पढना चाहेगा । संस्कृत को कोइ सिखना भी नही चाहेगा । इतनी कफोडी स्थिति होगी कि उसे कोइ पानी पिलाने वाला भी नही मिलेगा । संस्कृत को भारतीय सभी भाषा कि जननी मानी गइ है वह बात गलत होगी । भाषा वैज्ञानिको को सब गालिया देगे कि उसने सबको झूठा ज्ञान दिया । एक भाषा वैज्ञाननिक होकर झूठा ज्ञान देना अपराध है । और वह सब अपराध कि सजा भूगतेंगे । संस्कृत के पीएचडी लोग मातम मनाएंगे । संस्कृत की प्राचिनता खो जाने पर भारतीय संस्कृति का एक नया इतिहास सामने आ सकता है । वह संस्कृत के मंत्र उसे नही भूल सकते वह तो संताकूकडी खेलेंगे । वह रास्ता भूल जायेंगे कि कहा जाना है । संस्कृत कि प्राचिनता खोने पर भारत कि संस्कृति ही बदल जायेगी । भारत कि परंपरा बदल जायेगी । त्यौहार बदल सकते है । जिसकी पूजा होती है उसका अपमान करने लगे और जिसका अपमान होता है उसकी पूजा भी हो सकती है । और यह साबित होगा कि भारत कि प्राचिनता संस्कृत से नही है । संस्कृत से पहले बहुत पहले भारत का अपना इतिहास रहा है एसा लोगो को समझाना पडेगा । चाणक्य का वह अर्थशास्त्र जो माना जाता है कि संस्कृत में लिखा है उस पर संशोधन की मांग ऊठेगी और झूठ साबित होने पर उसका प्राचर करने वालो को भी सजा हो सकती है । संस्कृत के उस साहित्य कि जिसे प्राचिन कहा गया है उसे सब झूठा साहित्य कहेंगे वह साहित्य अस्तित्व के लिए शायद गिडगिडानेलगे शायद कही हमे वह म्यूझियम में मिल जाए । और अन्त शिक्षा क्षेत्र में पढाया जायेंगा कि एक झूठी भाषा थी उसका झूठा इतिहास था उसकी झूठी कहानिया थी एसा हम भारतके वासी सदियो तक सिखते आये हमे इस झूठी भाषा के किसी भी ज्ञान को मानना नही है । मित्रो इससे भी गंभीर समस्या आ सकती है यदि संस्कृत अपनी प्राचिनता खो दे तो आशा है कि संस्कृत अपनी प्राचिनता बनाए रखे र कोइ शिलालेख मिल जाए जो पांछ हजार साल पूराना हो और संस्कृत में लिखा है और हा उसमें आधुनिकता के कोइ शब्द न हो एसी आशा सह  अस्तु ।

Saturday, 16 June 2018

असरकारक शिक्षा क्या है ?


असरकारक शिक्षा क्या है
शिक्षा को हम समज नही पाए और शिक्षा अपने साथ एक विशेषण लेकर आ गइ । शिक्षाने एक विशेषण लिया है वह है असरकारक शिक्षा । शिक्षा ने यह विशेषण अपनी कुछ बाते समझाने के लिए लिया है । किसी चिज को नजदिक से समझने के लिए विशेषण मदद कर देता है । जैसे कि काफी सारी गाय है यदि हम विशेषण लगा ले कि लाल गाय तो वह विशिष्ठ अर्थ प्रस्तुत कर देती है और उसके नजदिक जाया जा सकता है । शिक्षा  केवल यही विशेषण नही लिया है काफी सारे विशेषण लेकर घूमती रहती है । जैसे बुनियादी शिक्षा, व्यवसायिक शिक्षा आदि शिक्षा अपने स्पष्ट अर्थ को प्रस्तुत करने के लिए विशेषण ले लेती है। जैसे ही विशेषण लेती है शिक्षा का एक अलग विभाग बन जाती है । यहा पर असरकारक शिक्षा को समझना अति आवश्यक है । असरकारक शिक्षा यानि क्या ? इस बात को समझने के लिए हमे शिक्षा को नये संदर्भ में देखना होगा । असरकारक शिक्षा को समझने के लिए पहले तो शिक्षा को समझना होगा । क्या है शिक्षा ?  आज तक शिक्षा एक उद्देश्य को लेकर चलती आ रही है जैसे कि आत्मा का विकास करना, सैनिक तैयार करना आदि उस उद्देश्य को शिक्षा माना जाता है । शिक्षा के संदर्भ के विचारो का विश्लेषण करते है तो पता चलता है कि शिक्षा को किसी उद्देश्य को प्रप्त करना चाहिए इसी बात को लेकर विचार मिलते या तो शिक्षा को एक प्रक्रिया के रूप में देखा गया है । यहा पर हम शिक्षा के दूसरे रूप के संदर्भ में शिक्षा के अर्थ को लेकर चलेंगे । उद्देश्य बदलते रहते है लेकिन प्रक्रिया को हम अपने हिसाब से काबू कर सकते है । उद्देस्य स्वार्थ पूर्ण हो सकता है लेकिन प्रक्रिया में स्वार्थ आना बेमतलबी बात है । शिक्षा के संदर्भ में कहे तो यह दो बाते एक सिक्के की दो बाजु है । दोनो से ही शिक्षा पूर्ण बनती है .. हमें दोनो को अलग नही मानना चाहिए । यदि इन दोनो कि मिलावटी परिभाषा दी जाए तो एसे दे सकते है कि किसी उद्देश्य को प्राप्त करने कि योग्य प्रक्रिया यानि शिक्षा । शिक्षा के उद्देश्य बदलते रहते है जैसे कभी वह आत्मा का विकास हो जाती है, कभी  विज्ञान का विकास हो जाती है,जैसा विस्तार, जैसा समय उस हिसाब से उद्देश्य में परिवर्तन होता रहता है । प्रक्रिया में भी बदलाव होता रहता है कभी वह अनौपचारिक कहलाता है तो कभी औपचारिक । प्रक्रिया के रूप में शिक्षा को देखे तो शिक्षा जिवनपर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है । असरकारक शिक्षा के संदर्भ में शिक्षा को एक प्रक्रिया माना जाता है । यदि हमें असरकारक शिक्षा को समझना है तो शिक्षा कि प्रक्रिया को समझना अति आवश्यक है । कम्प्यूटर कि प्रक्रिया के द्वारा हम शिक्षा कि प्रक्रिया को समझने कि कोशिश करेंगे । 
       कम्प्यूटर में तीन चरणो कि प्रक्रिया होती है 1 इनपुट 2 संग्रहण 3 आउटपुट शिक्षा को भी हमे इन्ही तीन चरणो मे लेना है

 इनपुट-संग्रहण एवं विश्लेषण-आउटपुट
इस प्रक्रिया कि विस्तृत समझ हम दूसरे अध्याय में देखेंगे । ज्ञान का इनपुट होता है ज्ञान का संग्रहण होता है, विश्ल्षण होता है अन्त में ज्ञान का आउटपुट होता है । शिक्षा इसी प्रक्रिया मे कार्य करती है । इस संदर्भ में यदि असरकारक शिक्षा कि परिभाषा दे तो इस प्रकार होगी ।
असरकारक ज्ञान का असराकराक रूप से इनपुट होना, असरकारक रूप से संग्रहण एवं विश्लेषण होना तथा उस ज्ञान का असरकारक रूप से आउटपुट होना हूि असरकारक शिक्षा है ।
यदि ज्ञान असरकारक नही है, ज्ञान असरकारक रूप से इनपुट नही हुआ है और यदि ज्ञान असरकार रूपसे संग्रहित नही हुआ है और यदि ज्ञान का असरकारक रूप से आउटपुट नही होता है तो वह शिक्षा किसी काम की रहती नही है वह असरकारक बन ही नही सकती है ।
आज के संदर्भ मे देखे तो इनपुट एवं संग्रह पर ज्यादा जोर दिया जाता है उसकी असरकारकता के आसपास ही शिक्षा घुमती रहती है लेकिन असरकारक आउटपुट को नजरअंदाज किया जा रहा है ।आउटपुट केवल तीन घंटो का होता है जिससे आउटपुट असरकारक बन नही पाता है और शिक्षा असरकारक नही बन पाती है । असरकारक शिक्षा के लिए शिक्षा प्रक्रिया के तीनो सोपानो पर हमे ध्यान रखना अति आवश्यक है ।

हाय ! रे ! परीक्षा


हाय !  रे परीक्षा
मे कहूँगा कि आपको कितनी गालिया आती है जितनी भी गालिया आति हो वह सारी कि सारी परीक्षा सिस्टम को दे दिजिए । गुस्सा इतना भरा है कि यदि परीक्षा जिवित होती तो उसे दिन में तारे दिखा दिए होते । मेरे अकेले का यह गुस्सा नही है कइ सारे लोगो का गुस्सा है । अब लोग परीक्षा के फेवर में बोलते नहीं है । बोलते नही उतना ही नही विरोध जताते है । फिर भी परीक्षा जाने का नाम नही लेती । बेशर्मी की भी हद होती है । इतनी बेशर्मी मैने तो कभी नहीं देखी ।  अब शायद परीक्षा का दूसरा नाम बेशर्मी ही रखना होगा ।
परीक्षा के न हटने का कारण एक यह भी है कि मूल्यांकन का उसके सिवा दूसरा रास्ता भी हमारे पास नही है । तो हम चाहे या न चाहे परीक्षा तो रहेगी ही । क्योकि एक ही रास्ता है तो उसी पर तो चलना पडेगा । तो सदियो से हम चले आ रहे है । गालिया देते जाते है और चले भी जाते है । इससे बडी मजबूरी मानवसमाज के लिए क्या हो सकती है । मजबूरी में गधे को भी बाप कहना पडता है तो परीक्षा को क्यू नही ।
संशोधन के अध्यापक का एक उदाहरण मुझे याद आ जाता है चू कि यह उदाहरण संशोधको के लिए फेवरिट होता है क्योकि संशोधन कार्य कि विश्वसनीयता बढाता है । चावल का उदाहरण , संशोधक होगे तो जरूर याद आया होगा । चावल चेक करने के लिए एक दो दाने चेक करलो यदि व दो दाने तैयार है तो पूरे चावल तैयार हो गए है एसा माना जाता है संशोधन इसी बातो पर टिका होता है । मगर यह बाते सभी जगह पर हम अमल नही ला सकते मानो कि एक गाव में पाँच लोग अच्छे है तो एसा निष्कर्ष कदापि नही निकाला जा सकता कि पूरा गाँव अच्छा है या बूरे है तो पूरा गाँव बूरे है । परीक्षा सिस्टम यही करती है । इतने विशाल ज्ञान के स्त्रोत मे से थोडा सा पूछ लेती है और मान लेती है कि यह आदमी को सबकुछ आता है या थोडा आता है । तो यह बात उस गाँव के समान होगी व्यक्ति शायद पूछा गया वही ज्ञात था बाकी का नही तो, मानो परिस्थिति उलट हो व्यक्ति को वही नही तैयार था जो पूछा गया बाकी मे वह मास्टर था तो क्या गलत निष्कर्ष नही निकलेगा । ऐसे तो काफी कठिनाइया परीक्षा सिस्टम मे है । जब परीक्षा अमल में आयी होगी तब जैसे संशोधको को वह दृष्टात कितना अच्छा लगता है उतना ही अच्छा परीक्षा को लाने वाले एवं उसे चाहने वालो को लगा होगा ।  
परीक्षा के कारण शिक्षा का व्यापारिकरण हो रहा है, बिना महेनत के पास होने कि लोग सोच रह है, रटन्त पद्धति फल पूल रही है। परीक्षा मे अच्छे अंक कैसे लाए उसके क्लासिस आज देखने को मिलते है। विषयवस्तु कितना बढिया है यह नही देखा जाता लेकिन परीक्षा कैसे हल करनी है यह देखा जाता है । शिक्षा में भ्रष्टाचार को बढावा मिलता है । प्रमाणपत्र बिके जाते है । एसी इनगिनत समस्याए जो भी शिक्षा के अन्तर्गत मौजूद है उसकी जडे कही न कही परीक्षा सिस्टम से है ।
चूँ कि हमारे पास दूसरा विकल्प नही है तो हमे इन सारी समस्या को या तो जेलना पडता है या कानून बनाने पडते है लेकिन उसका कितना अमलीकरण होता है शायद हम जानते है ।
प्रश्न यह उठता है कि परीक्षा किन कारणो से होती है ? मूल्यांकन करने के लिए । तो प्रश्न यह उठता है मूल्यांकन क्यो किया जाता है । योग्य व्यक्तिको न्याय मिले ।शायद बात इतनी सी ही है ।
कुदरत के सिस्टम मे नजर दौडाएगे तो पता चलेगा कि वहा परीक्षाए नही होती । कोइ कुत्ता परीक्षा देते नजर नही आयेगा । कोइ बिल्ली, कोइ पेड कोइ भी परीक्षा देते नजर नही आते । कुदरत के सिस्टममे परीक्षा है ही नही फिर भी डार्विन बताता है कि कुदरत मे योग्य ही जिन्दा रह पाता है अयोग्य आगे नही आ पाता । बिना परीक्षा, बिना मूल्यांकन योग्य को न्याय मिलता है । तो योग्य को न्याय दिलाने के लिए परीक्षा या मूल्याकन आवश्यक नही है ।
गुजरात के दो  व्यवसायो कि बात करूगा कि वह बिना मूल्यांन एवं बिना परीक्षा फलता जा रहा है ।एक है डायमन्ड कटिंग का व्यवसाय जिसकी कोइ परीक्षा नही होती फिर भी उस व्यवसाय में लाखो लोग कार्य कर रहे है । बिना परीक्षा के भारत के अर्थतंत्र को मजबूत कर रहे है । पूरे का पूरा सूरत शहर उस व्यवसाय पर प्रगति कर रहा है । योग्य ही वहा जाता है अयोग्य नही और जो अयोग्य है वह उसमे से ज्यादा हांसिल नहीं कर सकता।
दूसर है कन्स्ट्रक्शन का काम गुजरात में काफी लोग अपने आप कन्स्ट्रक्शन का काम चलाते है बिना परीक्षा दिए बीना मूल्यांकन पास किए।एक इन्जिनीयर पास एसा काम नही कर सकता वैसा काम आम लोग कर देते है । और वहा पर भी योग्य को ही न्याय मिलता है ।
एसे तो काभी व्यवसाय है जो बिना पढाई के, बिना परीक्षा के बिना मूल्याकन पत्र के काफी मजबूत है ।
      चयन का कार्य समाज को करना चाहिए यदि समूह चयन कर्ता है तो योग्य को जरूर न्याय मिलने कि संभावना है ।  मूल्यांकन करना जरूरी नही है । यदि मूल्यांकन जरूरी नही है तो परीक्षा कि कोइ आवश्यकता रहती नही है । मूल्यांकन का विकल्प कवेल परीक्षा हो सकती है । लेकिन मूल्याकन होना चाहिए या न होना चाहिए यह तो हमारे हाथ में है ।

शिक्षा के अर्थ में परिवर्तन होते रहना जरूरी है


शिक्षा के अर्थ मे बदलाव होना चाहिए
इतिहास पर नजर करेंगे तो सहज समज आयेगा कि शिक्षा अपने आपमें सदैव बदलाव लाती रही है और अपने अर्थ में भी बदलाव लाती रही है । शिक्षा का एक अर्थ कभी नही रहा है । उसका गुण कहे या प्रकृति मगर शिक्षा अपने अर्थ में बदलाव लाती ही है या शिक्षा के अर्थमें दलाव जरूर होता रहता है । सामान्य शब्दों में कहे तो शिक्षा शब्द एसा शब्द है जो अनेक बाबतो के प्रयुकत होता रहता है कोइ कहे कि शिक्षा का यही अर्थ है तो वह गलत होगा । क्योकि शिक्षा के कई अर्थ है । वही बात शिक्षा कि विशेषता है । शिक्षा कि इन विशेषता के कारण ही समाज को निश्चत दिशा मिली है यदि शिक्षा अपना अर्थ न बदलता तो शायद समाज दिशा विहिन होता । और साज का दिशाविहिनता सुरक्षा प्रदान करने में असफल रहती  है ।
यदि शिक्षा का एक ही अर्थ रहता है तो शिक्षा कि प्रक्रिया भी एक ही रहती शिक्षा के विभिन्न अंग भी एक ही रहते . कुए के पानि के समान शिक्षा एवं समाज बन जाता है । बंधियार पानि के समान बन जाता है और वह पानि दूषित बन जाता है उसी प्रकार शिक्षा एवं समाज भी दूषित बन जाते है । यदि शिक्षा के अर्थ में परिवर्तन नही होता है तो समाज भी दूषित बन जाता है ।
शिक्षा के अर्थ में परिवर्तन न होने के कारण
शिक्षा चूं कि अपना अर्थ बदल ही देती है लेकिन किसी कारण शिक्षा के अर्थ में लंबे समय तक बदलाव नही होता है । तो हमे उसके कारणो के बारे मे समझना चाहिए
शासन प्रणालि के स्वार्थीपन के कारण- जबसे  इन्सान  सामाजिक बना है तब से किसी न कीसी प्राकार शासक प्रणाली रही है जिसमे एक शासक होता है । वह शासक लंबे समय तक अपने शासन को बनाये रखने , प्रजा को मुर्ख बनाए रखने अपनी पिढी को शासन देने के लिए शासक शिक्षा के अर्थ में परिवर्तित होने नही देते है जैसे ही शिक्षा के अर्थ में परिवर्तन होता है शासक शिक्षा के परिवर्तन को दबा देता है और शिक्षा को परिवर्तित नही होने देती है । सासक वर्ग शिक्षा का संचालन अपने हाथो में ले लेते है । और शिक्षा के अर्थ में परिवर्तन नही होने देते वह तो एक ही अर्थ वकरार रखने के पक्ष में होते है और वह एसे ही प्रणालिया अमल में लाते है । और इस तरह शिक्षा के अर्थ में लंबे समय तक कोइ बदलाव नही होता है ।
बहुपयोगी शिक्षा प्रणाली – यदि शिक्षा बहुपयोगी है समाज को उसका काफी लाभ मिला है तो वह लंबे समय तक रहती है । उपयगिता के परिणाम स्वरूप वह अपने अर्थ में बदलाव नही लाती है ।
धर्म के कारण –धर्म अपने विचार एवं रीतियो को कायम करने के लिए शिक्षा के अर्थ में परिवर्तन नही लाने देते है । धर्म का समाज पर अपना प्रभाव रहा है । उस प्रभाव के कारण धर्म एक ही प्रकार के अर्थ को पकड कर रहता है जिसके कारण शिक्षा के अर्थ में परिवर्तन नही होता है । धर्म की अपनी विचार प्रणाली होती है और वह शिक्षा के कारण मजबूत बनती है यदि शिक्षा के अर्थ में बदलाव होता है तो धर्म पर संकट आ जाता है इसी कारण धर्म शिक्षा को परिवर्तित नही होने देते है ।
शिक्षा के अर्थ में परिवर्तन न होने से क्या होता है ?
हमने पहले चर्चा कर कहा है कि दूषित पानि कि तरह समाज बन जाता है और एक दूषित समाज किन किन तकलिफो से गुजरता है वह हमे पता है । समाज मे कुरितिया, अंधश्रद्धा, वहम, लडाई, युद्ध, अराजकता, शोषण, जातिवाद आदि सारी समस्याए शिक्षा के अर्थ में परिवर्तन नही होने से होते है ।  यदि शिक्षा के अर्थ में परिवर्तन नही होता है इसका मतलब यह होता है कि एक ही विचार कि शिक्षा अमल में दूसरे शब्दों में कहे तो एक ही अर्थ कि शिक्षा अमल में है । समाज में नये विचारो का आगमन ही नही होता है । समाज एक ही मार्ग पर चला जा रहा है । समाज का एक ही मार्ग पर चलना यानि पानि का दूषित होना उसी तरह समाज का दूषित होना।
शिक्षा अर्थ नही बदलती तो शिक्षा के अभ्याक्रम में भी बदलाव नही आयेगा । अभ्यासक्रम में बदलाव नही आने से समाज मे एक ही प्रकार की शिक्षा अमल मे होगी और समाज एक ही प्रकार का ज्ञान ग्रहण करेगा जिससे समाज कमजोर बनेगा ।   कमजोर समाज न प्रगति कर सकता है न संतुलन बना सकता है । बिना संतुलन का समाज अराजकता के सिवा कुछ नही दे सकता ।
शिक्षा के अर्थ में परिवर्तन नही होने से समाज में सर्जनात्मकता की कमी होती है । बिना सर्जनात्मकता के समाज कि क्या दशा होती है उसकी क्ल्पना हम कर नही सकते ।
शिक्षा के अर्थ में परिवर्तन न होना इसका मतलब यह होता है कि जैसे डॉक्टर के द्वारा एक ही प्रकार की दवा का डोस देना ।
उपरोक्त परिणामो को ध्यान में रखकर हम कह सकते है कि शिक्षा के अर्थ में परिवर्तन होते रहना चाहिए ।





भाषा(language) उत्पति एवं सिद्धांत


भाषा की उत्पति और सिद्धांत
भाषा कि उत्पति  कैसे हुइ यह जानना हमारे लिए महत्त्वपूर्ण बात है क्योकि भाषा कि उत्पति से हमारे समाज कि प्रगति की विकास यात्रा जुडी हुइ है आज कि पूरे विश्व कि भाषा इतनी परिवर्तित हो चुकी है कि उनके जरिए यदि हम भाषा उत्पति की सोचेगे तो उत्तर नही मिल सकेगा क्योकि क्क्योंकि आधुनिक भाषाएँ अपने मूल रूप से बहुत ही दूर चुकी है मूल रूप से इतनी दूर चुकी है कि अंतर नापना मुश्किल है उनके आधार पर भाषा के मूलरूप को पहचानना मुश्किल है यदि अंतर कम होता तो हम अनुमान, झोड-तोड, तर्क आदि के सहारे भाषा कि उत्पति को जान लेते लेकिन आज हम सिर्फ कल्पना कर सकते है बाकी कुछ नहीं इसलिए भाषा के मूल पर जाना मुश्किल बना हुआ है आज हम भाषा उत्पति के विषय पर किए गए अनुमानो पर चर्चा करेंगे जिन्हें सिद्धांत भी कहे जाते है लेकिन कोइ बात सिद्धांत तब कहलाती है जब वह सत्य हो यहा दिए गए तथ्य सिद्धांत कहलाने के लायक है या नहीं आप ही निश्चित करे।
Ø  दिव्योत्पति सिद्धांत :
भाषाओं की उत्पत्ति के सम्बन्ध में सबसे प्राचीन मत यह है कि संसार की अनेकानेक वस्तुओं की रचना जहाँ भगवान ने की है तो सब भाषाएँ भी भगवान की ही बनाई हुई हैं। कुछ लोग तो आज भी इसी मत को मानते हैं। मनुष्य की पराचेतना किसी अलौकिक सूत्र से बंधी हुई है.सम्पूर्ण सृष्टि के जन्म के विषय में एक अध्यात्मिक सूत्र सामने रखा गया है….एकोऽहम बहुस्याम. ईश्वर ने यह कामना की कि मैं अकेला हूँ इसलिए स्वंय को बहुतों में विभक्त करना चाहिये.यही कारण है कि यह अखिल ब्रह्मांड उस ईश्वर का विशाल दर्पण है और हम सब उस परमपिता की संतान हैं.
इस भावबोध के जगते ही मनुष्य सामुदायिक जीवन यापन का बोध और भी विकसित हुआ क्योंकि संयुक्त रूप से जीवन यापन में एक सुरक्षा का बोध है और विकास का अनुभव. इसलिये ऋगवेद के एक सूक्त में ऋषियों ने अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हुये कहा कि वाणी दैविक शक्ति का वरदान है जो इस संसार के सभी प्राणियों को प्राप्त हुआ है और मनुष्य की चेतना में इसी वाणी ने परिनिष्ठित भाषा का रूप लिया.

संस्कृत को देवभाषाकहने में इसी का संकेत मिलता है। इसी प्रकार पाणिनी के व्याकरण अष्ब्टाध्यायीके 14मूल सूत्र महेश्वर के डमरू से निकले माने जाते हैं। बौद्ध लोग पालिको भी इसी प्रकार मूल भाषा मानते रहे हैं उनका विश्वास है कि भाषा अनादि काल से चली रही है। जैन लोग इससे भी आगे बढ़ गए हैं। उनके अनुसार अर्धमागधी केवल मनुष्यों की ही नही अपितु देव, पशु-पक्षी सभी की भाषा है। हिब्रू भाषा के कुछ विद्वानों ने बहुत-सी भाषाओं के वे शब्द इकट्ठे किए जो हिबू से मिलते जुलते थे और इस आधार पर यह सिद्ध किया कि हिब्रू ही संसार की सभी भाषाओं की जननी है।
इस विश्लेषण के अनुसार भाषा की उत्पति का प्रायोजन दैविक माना जाता है लेकिन जैसे-जैसे भाषाविज्ञानियों की खोज आगे बढ़ती गई,इस सिद्धांत पर भी कुछ शंकाएँ उठने लगी.जैसे- अनीश्वरवादियों का तर्क है कि यदि मनुष्य को भाषा मिलनी थी जन्म के साथ क्यों नहीं मिली. क्योंकि एनी सभी जीवों को बोलियों का उपहार जन्म के साथ-साथ मिला लेकिन,मानव शिशु को जन्म लेते भाषा नहीं मिली.उसने अपने समाज में रहकर धीरे-धीरे भाषागत संस्कारों का विकास किया.
यदि भाषा की दैवी उत्पत्ति हुई होती हो सारे संसार की एक ही भाषा होती तथा बच्चा जन्म से ही भाषा बोलने लगता। इससे सिद्ध होता है कि यह केवल अंधविश्वास है कोई ठोस सिद्धान्त नहीं है।
मिस्र के राजा सैमेटिक्स, फ्रेड्रिक द्वित्तीय (1195-1250), स्काटलैंड के जेम्स चतुर्थ (1488-1513) तथा अकबर बादशाह (1556-1605) ने भिन्न-भिन्न प्रयोगों द्वारा छोटे शिशुओं को समाज से पृथक् एकान्त में रखकर देखा कि उन्हें कोई भाषा आती है या नहीं। सबसे सफल अकबर का प्रयोग रहा क्योंकि वे दोनों लड़के गूंगे निकले जो समाज से अलग रखे गए थे। इससे सिद्ध होता है कि भाषा प्रकृति के द्वारा प्रदत्त कोई उपहार नहीं है।
भाषा में नये-नये शब्दों का आगमन होता रहता है और पुराने शब्द प्रयोग-क्षेत्र से बाहर हो जाते हैं।
निष्कर्ष
भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में दैवी सिद्धान्त तर्कसंगत नहीं है। इसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अभाव है। इसमें भाषा की उत्पत्ति की समस्या का कोई समाधान नहीं मिलता। हाँ, इस सिद्धान्त में यहाँ तक सच्चाई तो है कि बोलने की शक्ति मनुष्य को जन्मजात अवस्था से प्राप्त है।
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि कुछ हद तक इस सिद्धांत को स्वीकार कर लिया जाय,तब भी दिव्योत्पति सिद्धांत का नियामक नहीं हो सकता.इसलिये भाषाविज्ञानियों ने अन्य प्रयोजनों पर शोध कार्य जारी रखा और कुछ नये सिद्धांत सामने आये.
Ø  संकेत सिद्धांत:
इसे निर्णय-सिद्धान्त भी कहते हैं। इस सिद्धान्त के प्रथम प्रतिपादक फ्राँसीसी विचारक रूसो हैं। संकेत सिद्धान्त के अनुसार प्रारम्भिक अवस्था में मानव ने अपने भावों-विचारों को अपने अंग संकेतों से प्रषित किया होगा बाद में इसमें जब कठिनाई आने लगी तो सभी मनुष्यों ने सामाजिक समझौते के आधार पर विभिन्न भावों, विचारों और पदार्थों के लिए अनेक ध्वन्यात्मक संकेत निश्चित कर लिए। यह कार्य सभी मनुष्यों ने एकत्र होकर विचार विनिमय द्वारा किया। इस प्रकार भाषा का क्रमिक गठन हुआ और एक सामाजिक पृष्ठभूमि में सांकेतिक संस्था द्वारा भाषा की उत्पत्ति हुई। विश्व भाषाविज्ञानी यह स्वीकार करते हैं कि मनुष्य के पास जब भाषा नहीं थी,तब वह संकेतों से अपनी विचारों की अभिव्यक्ति करता था.यह संप्रेषण यद्यपि अधूरा होता था तथापि,आंगिक चेष्टाओं के माध्यम से परस्पर परामर्श करने की एक कला विकसित हो रही थी.विचार विनियम के लिये यह आंगिक संकेत सूत्र एक नये सिद्धांत के रूप में सामने आया और संकेत के माध्यम से ही भाषाएँ गढ़ी जाने लगी.भाषाविज्ञानियों का यह मानना है कि जिस समय विश्व की भाषा का कोई मानक स्वरुप स्थिर नहीं हुआ था,उस समय मनुष्य संकेत शैली में ही वैचारिक आदान-प्रदान किया करता था.
इस संकेत सिद्धान्त के आधार पर आगे चलकर रचई’, ‘रायतथा जोहान्सन आदि विद्वानों ने इंगित सिद्धान्त (Gestural theory) का प्रतिपादन किया जो संकेत सिद्धान्त की अपेक्षा कुछ अधिक परिष्कृत होते हुए भी लगभग इसी मान्यता को प्रकट करता है।
समीक्षा * यह सिद्धान्त यह मान कर चलता है कि इससे पूर्व मानव को भाषा की प्राप्ति नहीं हुई थी। यदि ऐसा है तो अन्य भाषाहीन प्राणियों की भाँति मनुष्य को भी भाषा की आवश्यकता का अनुभव नहीं होना चाहिए था। यह सिद्धांत अपने आप में कुछ विसंगतिओं को साथ लेकर चलता है.आज के भाषाविज्ञानी इस सिद्धांत के विषय में पहला तर्क यह देता है कि मनुष्य यदि भाषाविहीन प्राणी था तो उसे संकेतों से काम चलाना गया.फिर संकेत भाषा कैसे बनी ? दूसरा संशय यह भी है कि यदि पहली बार मानव समुदाय में किसी भाषा का विकास करने के लिये कोई महासभा बुलाई तो उसमें संकेतों का मानकीकरण किस प्रकार हुआ. और अंतिम आशंका इस तत्थ पर की गई कि लोक व्यवहार के लिये जिन संकेतों का प्रयोग किया गया,वे इतने सक्षम नहीं थे कि उससे भाषा की उत्पति हो जाती.
यह तर्कसंगत नहीं है कि भाषा के सहारे के बिना लोगों को एकत्रित किया गया, भला कैसे? फिर विचार-विमर्श भाषा के माध्यम के अभाव में किस प्रकार सम्भव हुआ।
इस सिद्धान्त के अनुसार सभी भाषाएँ धातुओं से बनी है परन्तु चीनी आदि भाषाओं के सन्दर्भ में यह सत्य नहीं हैं
जिन वस्तुओं के लिए संकेत निश्चित किये गये उन्हें किस आधार पर एकत्रित किया गया।
संक्षेप में, भाषा के अभाव में यदि इतना बडा निर्णय लिया जा सकता है तो बिना भाषा के सभी कार्य किये जा सकते हैं। अतः भाषा की आवश्यकता कहाँ रही?
·         निष्कर्ष
इस सिद्धान्त में एक तो कृत्रिम उपायों द्वारा भाषा की उत्पत्ति सिद्ध करने का प्रयास किया गया है दूसरे यह सिद्धान्त पूर्णतः कल्पना पर आधारित है। अतः तर्क की कसौटी पर खरा नही उतरता।
संकेत सिद्धांत का एक बड़ा महत्व यह है कि इसके द्वारा उच्चरित स्वर व्यंजनों के क्रम का सुनिश्चित किया जा सकता है.जैसाकि महर्षि पाणिनी ने किया था.भाषावैज्ञानिकों ने भाषा की उत्पति के संबंध में अपने विचार देते हुये संकेत सिद्धांत की स्थापना की.इस सिद्धांत के अनुसार मनुष्य के पास भाषा नहीं थी.
Ø  धातु या अनुरणन सिद्धान्त/रण रणन सिद्धांत (Root-theory):
इस सिद्धान्त के मूल विचारक प्लेटोथे। जो एक महान दर्शनिक थे। इसके बाद जर्मन प्रोफेसर हेस ने अपने एक व्याख्यान में इसका उल्लेख किया था। बाद में उनके शिष्य डॉ॰ स्टाइन्थाल ने इसे मुद्रित करवा कर विद्वानों के समने रखा। मैक्समूलर ने भी पहले इसे स्वीकार किया किन्तु बाद में व्यर्थ कहकर छोड़ दिया।
इस सिद्धान्त के अनुसार संसार की हर चीज की अपनी एक ध्वनि है। यदि हम एक डंडे से एक काठ, लोहे, सोने, कपड़े, कागज आदि पर चोट मारें तो प्रत्येक में से भिन्न प्रकार की ध्वनि निकलेगी। प्रारम्भिक मानव में भी ऐसी सहज शक्ति थी। वह जब किसी बाह्य वस्तु के सम्पर्क में आता तो उस पर उससे उत्पन्न ध्वनि की अनुकरण की) छाप पड़ती थी। उन ध्वनियों का अनुकरण करते हुए उसने कुछ सौ (400या 500) मूल धातुओं (मूल शब्दों) का निर्माण कर लिया जब कुछ कामचलाऊ धातु शब्द बन गए और उसे भाषा प्राप्त हो गई तो उसकी भाषा बनाने की सहज शक्ति समाप्त हो गई। तब वह इन्हीं धातुओं से नए-नए शब्द बना कर अपना काम चलाने लगा।
भाषा वैज्ञानिकों ने रणन सिद्धांत की व्याख्या करते हुये यह स्पष्ट किया कि प्रत्येक वस्तु के भीतर अव्यक्त ध्वनियाँ रहती है.प्लुटो मैक्सीकुलर ने इस सिद्धांत को आधार बनाकर भाषा के जन्म का प्रायोजन सिद्ध किया था.उदाहरण के लिये किसी भारी वस्तु से किसी दूसरी वस्तु पर आघात किया जाय तो कुछ ध्वनियाँ निकलती है. लकड़ी,पत्थर,ईंट और अलग-अलग धातुएँ, इन सबों में अलग-अलग ध्वनियाँ छिपी होती है और बिना देखे भी मनुष्य आसानी से जान सकता है कि किस वस्तु या किस धातु की कौन सी ध्वनि है. इससे यह स्पष्ट होता है कि संसार में ध्वनि आई. फिर धीरे-धीरे उन्हीं ध्वनियों का अनुसरण करते हुये मनुष्य ने शब्दों का आविष्कार किया.
समीक्षा
  • इस सिद्धान्त की निस्सारता या अनुपयोगिता के कारण ही मैक्समूलर ने इसका परित्याग किया था। इसके खण्डन के लिए निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं-
  • इस सिद्धान्त के अनुसार आदि मानव में नये-नये धातु बनाने की सहज शक्ति का होना कल्पित किया गया है जिसका कोई प्रामाणिक आधार नहीं है।
  • यह सिद्धान्त शब्द और अर्थ में स्वाभाविक सम्बन्ध मान कर चलता है किन्तु यह मान्यता निराधार है।
  • इस सिद्धान्त के अनुसार सभी भाषाएँ धातुओं से बनी हैं किन्तु चीनी आदि कुछ भाषाओं के सम्बन्ध में यह सत्य नहीं है।
  • आज भाषाओं के वैज्ञानिक विवेचन से यह मान्यता बन गई है कि सभी धातुओंया मूल शब्दों की परिकल्पना भाषा के बाद व्याकरण-सम्बन्धी विवेचन का परिणाम है।
  • यह सिद्धान्त भाषा को पूर्ण मानता है जबकि भाषा सदैव परिवर्तन और गतिशील होने के कारण अपूर्ण ही रहती है।
  • आधुनिक मान्यता के अनुसार भाषा का आरम्भ धातुओं से बने शब्दों से न होकर पूर्ण विचार वाले वाक्यों के द्वारा हुआ होगा।
इस सिद्धांत में शब्द के अर्थ के नैसर्गिक संबंध की व्याख्या की गई है.साथ ही साथ यह प्रमाणित किया गया है कि ध्वनियों से शब्द बने. लेकिन यह सिद्धांत भी अपने आप में अधूरा है क्योंकि,संसार की सभी भाषाओं में केवल ध्वनिमूलक शब्द नहीं हैं. हमारे यहाँ प्रत्येक भाषा शब्दों का अक्षर भंडार समेटने की सामर्थ्य रखती है.इसलिये कुछ वस्तुओं-धातुओं के ध्वनि से भाषा की उत्पति संभव नहीं है.अतः एक नए सिद्धांत का परिवर्तन किया गया,जिसे आवेग सिद्धांत कहते हैं.
Ø  आवेग सिद्धांत :
आवेग शब्द का प्रत्यक्ष संबंध मनोवेगों से होता है.मनुष्य के भीतर नाना प्रकार के आवेग पलते रहते हैं.जैसे: सुख-दुःख,क्रोध,घृणा,करूणा,आश्यर्य आदि.इन सभी मनोभावों को अभिव्यक्त करने की आवश्यकता होती है.इसीलिये संवेदना या अनुभूति के चरण पर पहुँच कर कुछ ध्वनियाँ अपने आप निकल जाती है.जैसे: आह,हाय,वाह,अहाँ आदि.
आवेग सिद्धांत की कुछ त्रुटियाँ हैं.इसमें आवेग या मनोवेग ही प्रमुख है और आवेग या मनोवेग मनुष्य के सहज रूप का संप्रेषण नहीं कर पाता. भाषा को यदि  संप्रेषण का माध्यम माना गया तो उसमें बहुत सारी स्थितियाँ ऐसी है जिसमें सहज अभिव्यक्ति की अपेक्षा होती है.यदि किसी विचार को संप्रेषित करने की आवश्यकता हो तो आवेग सिद्धांत वहाँ सार्थक नहीं मन जा सकता.इस लिये इस सिद्धांत की भी अपनी सीमा रेखा है और आवेग मूलक ध्वनियाँ ही किसी भाषा की संपूर्ण विशेषता का मानक नहीं हो सकती.
Ø  इंगित सिद्धांत :
भाषा वैज्ञानिकों का एक विशेष दल अपने प्रयोगों के आधार पर यह मानता है कि इंगित या अनुकरण से भाषा उत्पन्न हुई है.इंगित को संकेत सिद्धांत के साथ जोड़ा जा सकता है लेकिन भाषावैज्ञानिक के मत में पाषाण काल का मानव ,पशु-पक्षियों के अनुकरण से इंगित से सीखने की आकाक्षां रखता था.पशु जल के स्रोत में मुँह लगाकर पानी पीते थे.अपनी प्यास बुझाने हेतु आदि मानव ने उसी क्रिया का अनुकरण किया और उसने दोनों होठों के जुड़ने और खुलने की ध्वनि से पानी शब्द पाया.इसी प्रकार अनुकरण से अनेक शब्द प्राप्त हुये. लेकिन अनुकरण या दूसरे पर निर्भर रहने की प्रवृति बहुत दिनों तक नहीं चली और धीरे-धीरे मनुष्य ने अपनी बुद्धि से नए शब्दों का आविष्कार किया तथा भाषा के मामले में संपूर्ण सामर्थ्यवान होता चला गया.
यही कारण है कि भाषावैज्ञानिकों का आज का विश्लेषण यह निष्पति देता है कि भाषा की उत्पति के लिये सभी सिद्धांतों को मिलाते हुये एक समन्वय सिद्धांत की स्थापना होनी चाहिये. यह सच है कि कुछ शब्द दैविक अलौकिक कारणों से उत्पन्न हुये.कुछ शब्दों के लिये संकेत की शैली प्रायोजन बनी.कहीं भाषा का व्यापक स्वरुप ध्वनि से जुड़कर और भी व्यापक हुआ. कहीं अनुकरण की क्रिया का सहारा लेकर भाषा की यात्रा आगे बढ़ी.कहीं मनोवेगों ने साथ दिया और सबसे अधिक विचारों की परिपक्वता को संप्रेषित करने के लिये मनुष्य की बौद्धिकता ने जीवन की प्रयोगशाला में नये तथा सार्थक शब्दों का निर्माण किया.
इन सिद्धांतो के अतिरिक्त और सिद्धांत-
Ø  परग्रहवासी सिद्धांत-
यह सिद्धांत आधुनिक समाज की विचारधारा कि देन है । एलियन्स के अगवाह किए जाने की अफवाहे एवं उडती रकाबी जैसी बातोने एलियन होने पर लोगो के मानसिकता मे पकड जमाइ इतना ही नही एलियन्स पर कई फिल्म एवं लेखकोने भी काल्पनिकता दिखाइ एसेमे  सबका ध्यान उन भव्य प्राचिनता पर गया. दैवय बातो पर गया और खोजबीन जारी कि हिस्टरी चैनलने तो पूरी डॉक्यूमेन्टरी बनाइ और उनका नाम था एन्सियन्ट एलियन्स एसे सबूत वो बताते है और उनके विश्लेषणो से वो लोग मानते है कि हमारे प्राचीन सभ्यता को किसीने सँवारा है तो वह परग्रह वासी थे। परग्रह वासीने ही मानव को सभ्य बनाया। हिसटरी चैनल  तो यह भी मानती है क कि आज भी वे हमें मदद कर रहे है । आज नेट पर भी एन्सियन्ट एलियन्स की पूरी सिरीज आपको यूट्यूब पर मिल जाएगी । वो कहते है परग्रहवासी के  विज्ञान को हम समझ नहीं पाए इसलिए हमने उन्हे देवता का रूप मान लिया ।  परग्रह वासीके लोगोने हमारी पूरी पृथ्वी पर बसेरा किया था। जिस तरह यदि हम आज कोइ नया ग्रह ढूंढनेमें कामयाब होंगे तो वहां पर भी बट जायेंगे वहा  पर इन्डिया का अलग विस्तार होगा, अमेरिका का अलग विस्तार होगा । यदि हमें वहां अविकसित कोइ जाति मिलती है तो हम उसे हमारी भषा शिखाएंगे यानि भार हिन्दयानि भारत के लोग वहा की प्रजाति को हिन्दी और अमेरिका के लोग अंग्रेजी और चिन के लोग चिनि भाषा शीखायेंगे बाद में समय रहते उन भाषाओमें दलाव आ सकता है । भाषा का एक महत्त्वपूर्ण लक्षण यह रहा है कि वह बिना शीखाए नही पनपती यानि भाषा दूसरो से ही शीखी जाति है स्वयं उत्पन्न नहीं होती तो हम कह सकते है कि इन्सानो को किसीने भषा शीखाई होंगी । भाषामें जो विभिन्नता पाई जाति है वह बताता है परग्रह के जो लोग आए थे वहां पर भी अनेक प्रकार की भषाए बोली जाति होंगी । उन्होंने हमें सभ्य बनाया और छोडकर चले गये उनके लिए हम बहोत पिछे है इसलिए शायद उन्हें हमारी जरूरत नहीं है । इसलिए वहमारी दूनिया पर आते नही हों लकिन नजर बनाये हुए हो ओर वह भी उनकी अद्यतन टेकनोलोजी की मदद से । तो कह सकेतेतो परग्रहवासियोंने इंसानो को भाषा शिखाई ।
परग्रहवासी होने की कोइ दस्तावेजीकरण नही है । यानि एलियन्स है या नहीं इस पर अब भी प्रश्न है ।
इस तर्क को मानने के लिए एलियन्स को मानना पडेगा लेकिन विज्ञान उन्हे नकार रहा है विज्ञान कहती है हमारे नजदिकी कोइ ग्रह मे एलियन्स तो क्या प्राथमिक जिवो के लिए वातावरण भी नहीं है । हमारी गेलेक्सी के बहार से आए कोइ परग्रहवासी  हो तो वो यहाँ तक कैसे आए होंगे यह एक प्रश्न सा बना रहता है ।
जब कोइ एसे ग्रह की खोज करले तो इस तर्क को माना जा सकता है या रूबरू कोइ परग्रहवासी मिल जाए तो माना जा सकता है कि परग्रहवासियों ने मानव को भाषा शीखाई होगी । इस तर्क मे ताकत तो है लेकिन सबूतो के अभाव में इसे कैसे माना जाये यह भी एक प्रश्न है। इतिहासकार अपने खोज के जरिए सबूत तो इकठ्ठे कर रहे है शायद कोइ पक्का सबूत मिल जाए । आशासह ....
Ø  मनोवैज्ञानिक सिद्धांत-
मानव कि बात हो ओर हम मनोविज्ञान को भूलकर बात करे तो अधूरे ही रह जायेंगे मनोविज्ञान और उसकी पेटा शाखा शिक्षा मनोविज्ञानने प्राणीयो पर विभिन्न प्रयोग कर प्राणी कैसे शीखते है उसका अद्यय किया है क्यूकि मनुष्य पहले प्राणी ही था तो उसकी शीखने की प्रक्रिया भी प्राणियो जैसी ही रही होंगी लेकिन मनुष्य के पास अन्य प्राणियो से तेज बुद्धि शक्ति थी । मनोविज्ञान के साथ-साथ हमे शरीर शास्त्र भी देखना पडेंगा इसके अनुसार प्राणियो से भिन्न हमारा शरीर है भाषा के संदर्भ मे देखे तो मुह एवं जीह्वा सटीक व्यवस्थित है (प्राणियो के मुकाबले) और इन्ही रचना के कारण मनुष्य शायद सभी ध्वनियों का उच्चारण कर सकता है । भाषा कि उत्पति को समझने के लिए प्राणियो कि कुछ सान बातो को भी ध्यान में रखना होंगा शायद पहले ( आदिमानव के वक्त) मानव प्राणियो जैसा ही जिवन जिता हो लेकिन थोडा उन्नत तरीके से जीता हो। कुछ बाते जो हमें प्राणियों मे  देखनो को मिलती है वही बाते स्वाभिवकतः मानव में भी होंगी । जैसे- नेतृत्व करना प्राणियों मे दिखाइ देता है संभोग करना प्राणियों में दिखाइ देता है । समूह में रहना प्राणियो में दिखाइ देता है मातृप्रेम, परिवार भाव, समूह भाव, दूसरे गिरोह के साथ लडाइ करना आदि सारी बाते प्राणियों में देखे को मिलती है वह स्वताः मानव में भी होगी । और वह उसी तरीके जी रहा होगा । हमें भाषा के विकास को आज के सदर्भ में न देखकर शरूआती विकास के संदर्भ में देखनाहोंगा शायद ध्वनि से शब्द , शब्द से अर्थपूर्ण शब्द और उस अर्थपूर्ण शब्द से व्याकरण बद्ध भाषा इन सारे विकास के पहलूओ पर शायद एक-एक युग यानि 1000-1000 साल लगे हो ।यानि कि भाषा कि जो विकासगति आज दिख रही हैवह शायद आदिमानव के वख्त बहुत धीमी रही हो । इसीलिए हम उसे समज न पाए । और इन सभी बातो से महत्तवपूर्ण बात है उत्क्रांतिवाद, प्रकृति का चयन, विकासमान सजीव सृष्टि- मानव उन दिनो विकास होता रहा है और कुछ बुनियादी बाते जैसे कि कइ पंछी हें कि उन्हें वे ध्वनिया कहीं सुनि नहीं लेकिन उन्हें वे आती है कोयल कौए के घोसलेमे पलती है लेकिन ध्वनि तो अपनी ही निकालती है यानि की बुनियादी ज्ञान होता है कइ पंछी तो कइ प्रकार की ध्वनियां  निकाल लेते है वह भी बुनियादी ज्ञान पर कुछ बाते जो बुनियादी होती है जो शिखानी नही पडती मगर वह एक जिन- से दुसरे जिन में जाया करती है । इन सारी बातो को हमें ध्यान में रखनी होंगी तभी हम भाषा कि उत्पति के विषय में एकमत मत होगे ।
विकास कि प्रक्रियाने हमें मानव का अवतार दिया हम उन प्राणियो से अलग थे हम सीधए चलते थे हमारे पास उन सभी प्राणियों से कुछ ज्यादा ही ताकात प्रकृतिने दी थी उस समय उस मानव को तो नही पता चला होंगा लेकिन आज हम कह सकते है कि प्रकृतिने मानव को उच्च ताकते दी । प्राणि सहज जिंदगी जिता था लेकिन गुफा में रहना आग जलाना हथियार बनाना इन सारी बातो को उसने प्रकृतिसे शीखी वह भी आंतरसूझ, अनुकरण, प्रेरणा जैसे मनोवैज्ञानिक कारको के जरिये । समूह का नेता होता था प्राणियों कि तरह ही सभी लोग साथ में जूड बनाकर शीकार पर करने जाया करते होंगे कुछ कमजोर स्थानक पर रहते होंगे और वे बच्चो का ख्याल रखते होगे । एक टोली यहा पर तो दूसरी टोली दूसरी जगह पर एसी कइ टोलियोमे मानव बंटा होगो क्योकि गुण प्राणियों मे देखने को मिलते है । एक टोलि से दूसरीटोली का चोरी करना उस पर आक्रमण करना यह स्वाभाविक रहा होगा क्योंकि एसे लक्षण हमें प्राणियों मे मिलते है । मनुष्यमनुष्य के पास अनुकरण एवं आंतरसूझ कि शक्ति थी( अग्नि की खोज) वह देखर अनुकरण कर सकता था और आंतरसूझ के झरीए नया ज्ञान भी बना सकता था यह शक्ति मनुष्य के पास कुछ ज्यादा थी आंतरसूझ से प्राणी भी कई हेरत अंगेज कारनामें कर देते है कोहलरने जीस चिम्पाजी पर प्रयोग किया वह अपनी आंतरसूझ के बल पर ही लकडीके डू को के टूकडो को जोड सका ।  एक बंदर को यह कभी नही शीखाया था कि एसे लकडी जोडते है लेकिन आतंरसूझ के माध्यम वह शीख गया । मानव की आंतरसूझ कि शक्ति उस चिम्पांझ से ज्यादा थी। पहले मानवीने ध्वनिया निकालनी शीखी ।
अनुकरण से-प्राणियो की, पर्यावरण कि एवं अपने हाव भावो किअपने हावभावो कि ध्वनियों का अनुकरण करता रहता था।
निहित ध्विनया- कुछ ध्वनिया मनुष्य के स्वताः अंदर सेआती हो जो शाय़द आज विकास की यात्रा मे हम भूल गये हो ।
ध्वनिया तो कइ प्राणी भी अनुकरण से शीखते है जेसे तोता हम उसे बोलना शीखा लेते है अगर तोता अनुकऱण से ध्वनिया शीख सकता हो तो हम तो उससे आगे थे तो हमनें कइ ध्वनिया शीखि
इन ध्वनियो का व्यवहार में क्या प्रयोग हो सकता है
प्राणियो को भगाने -  कोइ शीकारी जानवर टोलियों  में आ ता होगा तो उसे अलग-अलग ध्वनियों से यानि चिल्लाकर या दूसरे प्रकार की ध्वनियो से एक साथ बोलकर भगा देते होंगे । यहा पर ध्वनियां उसके काम आइ यानि उन्हे प्रति पुष्टि मिली जब प्राणी को प्रतिपुष्टि मिलती है तो वर्तन पुनारवर्तित होता है एसा मनो विज्ञान मानता है यानि ध्वनियो कि पुनरावर्तिता बढी लेकिन सभी जंगली प्राणी एक ही ध्वनियो से नही भागते यानि हरेक प्राणी के लिए अलग-अलग ध्वनियो का प्रयोग किया होगा यह बाते प्रयत्न और भूल के जरिए शीखि होगी । इस तरह मानव ने ध्वनियो का इस्तमाल करने लगा ।
समूह कार्य मे समूससमूह में में जब शिकार करने जाते होंगे तब शिकार को पकडने पर उसका पिछा करने पर विभिन्न प्रकार की ध्वनियो का प्रयोग करते होंगे ।
भावो को व्यक्त करने में रोना हंसनाजब शिकारहंसना चिल्लाना, डरना इन सारी बातो पर वह अलग अलग प्रकार की ध्वनियो का उपयोग करता होगा जो कि वह आज भी कर रहा है । करने जाते होगे
ध्वनि के प्रयोग ने मानव को सुरक्षा  एकता एवं सरलता दी यानि ध्वनि को उसने ज्यादा उपयोग करने शरू करे होंगे इस प्रकार मानवी ध्वनियो को व्यवहारमें प्रयोग करना शीख गया उसने शायद एसे ही एक युग यानि 1000 साल से भी ज्यादा साल व्यवहार किया होंगा ।
शब्द रचना- ध्वनियोका उच्चारण एवं प्रयोग तो समज में आ सकता है क्योंकि वह तो प्राणियो में भी दिखाई देता है लेकिन ध्वनियो को जोडना कैसे शीखे होंगे यह बात महत्वपूर्ण बनी रहती है । शब्द रचना के संदर्भ में थोडे तर्क यहां प्रस्तुत है ।
प्राणियो से प्राणी भी ध्वनियो को जोड सकते है यानि कि म्याव- म्याव, हींसी-हींसी, मख्कियो की ध्वनिया, भौ-भौ, कूहू-कूहू इत्यादि इस तरह वह ध्वनियो को साथ मे  जोडकर बोलना सीखा होगा ।
पर्यावरण से- हवा कि छूम, पानी की कल-खल, पथ्थर की टक-टक एसे वह ध्वनियो को जोडना शीखा होगा
आंतर सूझ के जरिए नइ ध्वनियो का सृजन करना शायद उसने कुछेक शब्द अपने बनाए होंगे और इस तरह वह शब्द बनाना एवं बोलना शीख गया होंगा
समस्या यह है इसके पास सार्थक शब्द नहीं थे उसके पास बहोत ज्यादा शब्द नहीं थे शायद केवल 100 के आसपास शब्द हो और इतने से भाषा नहीं बनती । लेकिन इस बात का आनंद होना चाहिए कि मानव ने भाषा शीखने की ओर कदम रख दिए थे ।
सार्थक शाब्द पर जाए उससे पहले  एक बात पर ले जाना चाहूंगा कि मानव टोलियो में रहता था शायद टोलि 50-60 कि हो या इससे भी कम की कइ टोलिया थी । मानव बस्ति कम होंगी पूरे विश्व मे शायद 20000 जितने मानव हो यदि इन्हे 50 की की एक टोली कक ट से भाग दे तो  400 जितनी टोलिया पूरे विश्व में रहीं होंगी यदि इसे सात खंडो में विभाजित किया जाए तो 58 जितनी टोली एक खंड मात्र में आती है कुछ खंडो को बाद करे कि शायद वहा जिवन नहीं था तो एसे 5 खंड निकल सकते है इस हिसाब से 80 टोलिया एकजितनी टोलिया एक खंड में हो सकती है । खंड टोलियो यानि कि यह अर्थ निकाल सकते है कि टोलिया शायद ही कभी मिलती हो सभी टोलियो के अनुभव अलग- अलग थे यानि उनके शब्द भी अलग- अलग तो कुछ शब्द मिलते जुलते । जब टोलिया शिकार की खोज में दूर निकल जाति और किसी अन्य टोलियो से उनकी मुलाकात होती होगी तो वह खतरनाक होती होगी । युद्ध का माहोल होगा दोनो को नेता आमने सामने लडेंगे जैसे प्राणियों में हमें देखने को मिलता है । उस युद्ध में कमजोर नेता मारा जायेगा या भगाया जायेगा या वह शरणार्थी बन जाता होंगा जैसा प्राणियो में भी देखने को मिलता है । और इस तरह एक टोलि का दूसरी टोली में समावेश हो जाता है भाषा को यहा मजबूति मिलती है क्यों कि दोनो टोलियो के पास कुछ नये शब्द थे मान लिजिए के 100-100 शब्द उसमे कुछ समान निकले यानि 70 बस त इस तरह उसका 20 शब्दो की वृद्धि हुइ इस तरह  समूह भी बढा और शब्द भी बढे । जिस तरहजिस तरह वह ध्वनियो से प्राणियो को भगाने का काम करता था,  शिकार पर प्रयोग करता था उसी समय वह इन निरर्थक शब्दो का भी प्रयोग करते होंगे । यानि शब्दो का भी वही प्रयोग रहा होगा जो ध्वनियो का प्रयोग रहा होगा ।
अर्थहीन शब्दो की पुनरावर्ती के कारण वह रूढ बन गये यानि वह सहज बन गये । जैसे कि उसका कोइ अर्थ नही था लेकिन वह परिस्थितिया उत्पन्न होने पर स्वतः ही वे शब्द निकल जाया करती जैसे की कुत्ते को भागाने के लिए कि शब्द, और यही बात शब्द को अर्थ प्रदान कर गई मानव ने अर्थ विहीन शब्दो से शायद एक युग व्यवहार चलाया हो लेकिन वह  इसी कारण रूढ बने ।लंबे समय तक के प्रयोग एवं बारंबारिता के कारण शब्द रूढ बने जब शब्द रूढ बन जाते है तो अर्थ प्रस्तुत करने लगते है जैसे कुत्ते को देखकर वं कुत्ते को भौंकते समय मानवने भी सामने भोंकना शरू किया । अब वह कुत्ते को देखकर भौ-भौ बोलेगा । टोलिया भी भौ-भौ बोलेगी । अब समय रहते भौ-भौ कुत्ते का अर्थ प्रस्तुत करने लगा । मानव समझने लगा कि भौ- भौ यानि कुत्ता .। टोलिया कुछछ टोलिया शीकार करने जाति होगी कुत्ते को देखती होगी तब वह भौ-भौ बोलता होगा उसी तरह हर प्राणी को देखकर, प्राणी की आवाज की नकल कर , या उसे डराने के लिए जिस ध्वनियो का प्रयोग किया उस ध्वनियो का पुनरार्तन हुआ जेसे शेर प्राप्राणी को डराने के लिए मान लिजिए कि चातु ध्वनि का प्रयोग किया हो तो जबभी उस प्राणी को डराना होगा वह चातु-चातु एसे जोर से बोलते होंगे । समयसमय रहते शेर की पहचान बनी वह थी चातु । जब भी मानवने शेर को देखा बोल उठे चातु वह सही था क्योंकि वह रूढ बन गया था इस तरह डराने के भाव से जो ध्वनिया निरर्थक थी वह ध्वनिया पहचान बनी अर्थ प्रकट करने लगी । उस समयय वह 120 शब्द जो निरर्थक थे वह सार्थक बने और अब मानव मानव को को को  कोपहचान बता सकता था ।  हमे यह बात यहां याद रखनी चाहिए कि समझ शक्ति भी मानव में विकसित हुइ थी जैसे कि चिल्लाने कि आवाज से उसे पता चलता था कि  कोइ मुसिबत में है जैसे प्राणियो में देखने को मिलता है । उसी तरह इत्यादि भावो कि समज उसमें थी ये बाते उसे यहा काम आई । एसा है तो एसा ही होगा इस प्रकार का तर्क वह कर सकता था । एसी आवाज है तो वह शेर है एसी समज उसमे थी ।
पहचान एवं थोडे से सार्थक शब्दोने उन्हे सतर्क किया जैसे वह पहले शेर को देखकर भाग जाता था उसके बाद उसकी आवाज को देखकर उसके बाद सिर्फ चातु नाम सुनकर क्योकि उसे पता चल गया कि चातु यानि शेर ।इसी तरह आसपास की हरचीज जहा पर ध्वनिया उत्पन्न हुइ थी उसने उसी हिसाब से नाम रख दिया ।
जेसे नदी के पानी को शायद खल-खल कह दिया हो या वहा पर कोइ घटना यघटी हो पत्थर गिरा हो । दो शेरो कि लडाई हुइ हो एसी कोइ घटना जिसमें से ध्वनि निकली हो तो वह ध्वनि उसे याद होगी जब भी वह उस स्थान पर गया होगा उसे वह घटना याद आयी हो और उसे और साथ में वह ध्वनि भी याद यी होंगी बार बार एसी घटना के पुनरावर्तन से उस स्थान का नाम उस ध्वनि से बना जो नदी से बिलकुल जुडता न हो इस तरह नदी के पानी अलग-ध्वनि होने के बावजूद उसके लिए अलग ध्वनि अर्थ  लेकर  आयी कुछ टोलियो ने शायद पानी की मूल ध्वनियो की पुनरावर्ती कि हो जब वह स्थाई बना तो उसके पास काफी ध्वनियाँ थी । अब उसके पास केवल ध्वनिया नही बल्कि अर्थपूर्ण ध्वनिया थी और उसी के सहारे उसने अपना व्यवहार चलाया हो और आगे की आज की भाषा कि रचना धीरे-धीरे सर्जन हुइ हो ।

पाठक अपनी बात कॉमेन्ट करके बता सकते है अर्थपूर्ण शब्दो के बाद वाक्य एवं व्याकरणिय ढांचा कैसे बना उस पर अपने विचार रख सकते है । क़मेन्ट जरूर करे ।