Sunday, 29 July 2018

प्रकृति को साथ में रखकर ही.......


प्रकृति को साथ में रखकर ही.......

विकास कि परिभाषा हमारे सामने नही हो तो हम कैसे कह सकेंगे कि हमने विकास किया । किसी चिज में हमने प्रगति कि है वह हम कैसे कह सकेंगे । बात सामान्य लगती है कि यह तो सामान्य सी बात है । लेकिन बात यह है कि क्या किसी इन्सान के द्वारा तय किये गये मापदंडो से मानवजाति के विकास कि परिभाषा निश्चित कि जा सकती है । सवाल काफी है जो हमें मुश्केली में डाल रहे है । मानवने खोजे काफी कर ली है लेकिन समस्या तो वही कि वही है ।  एक मापदंड से देखते है तो दुनिया का साफ विकास दिखता है  और दूसरे मापदंड से देखते है तो दुनिया का विकास का जो ग्राफ है वो नीचे कि तरफ आता दिखाई देता है । डॉ. विश्वरूप रोय कहते है कि कुवैत देश में सभी अमीर है वहा के शासक आम जनता को काफी पैसे देते है यानि वहाँ किसी को काम पर जाने कि जरूरत नहीं है । यानि इस संदर्भ में उसका विकास हुआ ऐसा कह सकते है लेकिन डॉ. विश्वरूप बताते है कि वहां मधुमेह, हार्टएटेक. ब्लड प्रेसर आदि बिमारिया सबसे ज्यादा पायी जाती है यानि इस मापदंड से कुवैत देश का विकास का ग्राफ नीचे आता है । बात साफ है कि जिस मापदंड से विकास हुआ उससे सही में विकास हो पाया है । सवाल काफी है । मानवी को इतिहासिक पन्नो से देखे तो मानवी कि विकास कि परिभाषा का मापदंड इन दोसो सालो में कुछ अलग ही रहा है । साठ हजार से भी ज्यादा सालो से इन्सान इस दुनिया में है और जिव सृष्टि तो करोडो सालो से इस पृथ्वी पर है और दुनिया अरबो सालो से चल रही है इसमें मानवी केवल सो साल बिताता है और मापदंड तय कर जाता है । तो बात थोडी अजीब सी  लगती है मानवी ने अपनी सुविधा के लिए काफी चिजो का निर्माण किया, सर्जन किया दुनिया को समजा और जो समज प्राप्त कि उसका संग्रह करता गया और वह मानवी का ज्ञान बन गया ।  इतिहास साबित करता है कि मानवी के द्वारा जो समज विकसित कि गई वह समय समय पर बदलती गइ है यानि मानवीने जो ज्ञान संग्रह किया वह बदलाव पूर्ण है । उसमें परिवर्तन आ सकता है । उससे  हम कइ अर्थ निकाल सकते है ।  वह संग्रहित ज्ञान से अराजकता फैली है, पर्यावरण में दुष्प्रभाव भी ये है,  सामाजिक समस्याये निर्मित हुइ है, आर्थिक समस्याये निर्मित हुइ है, मानवी के ज्ञान उसे समानता, सुरक्षा, गौरवपूर्ण जिवन, आनंददायक  जिवन मिलना चाहिए था लेकिन जो असर होनी चाहिए थी उससे उलट असर देखने को मिलती है ।
हमें यह बात समझनी चाहिए कि पर्यावरण ही हमें बचाता है ।  हम अवकाश में जाते है तो वहा के पिंडो में पर्यावरण को खोजते है । पर्यावऱण और जिवन अलग नहीं है । पर्यावरण के सहारे ही हम ज्यादा समय तक इस दुनिया पर अपना अस्तित्व बनाये रख सकेंगे ।  यदि पर्यावरण खतम हो गया तो जिवन दूसरे दिन खतम हो जायेगा फिर जिस मापदंड से विकास देख रहे है उसका भी अस्तित्व नहीं रहेगा । परोपजिवी को अपना विकास करना है तो वह जिस पर निर्भर है उसे कभी खतम नहीं करता या तो वह परोपजिवी न रहकर आत्मनिर्भर बन जाये । और हम एक परोपजिवी है हम पर्यावरण के सहारे जिवन जि रहे है ।
जिस मापदंड से हम विकास को देखे लेकिन हमें पर्यावरण को सुरक्षित रखना ही चाहिए और सुरक्षित का मतलब है बागाडना नहीं चाहिए । हमें पहले हमारी सुरक्षा सोचनी चाहिए और सुरक्षा के बाद हम विकास कर सकते है । और सुरक्षा कवच ऐसा कि जिसमें एक खिडकी हो और हम चाहे तब उस खिडकी से बाहर निकल सके । लेकिन आफत न आये उसके लिए सुरक्षा कवच बनाना ति आवश्यक है ।
यदि हम सुरक्षित है तो हम निश्चिंत है और यदि हम निश्चिंत है तो हमारी सोच हमारा ज्ञान भी उन्नत हो सकता है । तो मानवी के विकास का जो भी मापदंड जो भी हो लेकिन पर्यावरण कि सुररक्षा एवं जिवन की सुरक्षा उसका पहला कदम बनता है ।

Monday, 16 July 2018

इ-लर्निंग को कोई पकडो भाई !


इ-लर्निंग को कोई पकडो भाई !
ई ने काफी नाम कमाया है । एक समय था पुस्तकालय यह काम करता था । लेकिन पुस्तकालय इतना महत्त्वपूर्ण होने बावजूद भी अपने पिछे लर्निंग विशेषण न जोड सका । ई की अपनी विशेषताए है और मानवी की उन्नत खोज है यह बात तो है ही मगर उसके पिछे लर्निंग विशेषण लग रहा है तो उसे हमें कन्ट्रोल भी करना चाहिए । ई से देखे तो  बेकाबू लर्निंग भी हो सकता है और काबू लर्निंग भी हो सकता । और हा यह प्रश्न तो खडा ही है कि क्या ई को ईतना बडा विशेषण देना चाहिए ?  चूँ कि उसे आज यह विशेषण लग रहा है तो हमें उसके संदर्भ में बात जरूर करनी चाहिए । उसके संदर्भ में चर्चा करनी ही चाहिए ।
ई काफी गति से फैल रहा है । आज गाव के स्कूल के वर्ग तक भी पहूंच गया है । और शिक्षक के पास अनगिनत दृष्टांत है । पहले वह अपनी आसपास की परिस्थितियो के हिसाब से ही दृष्टांत दे पाता था लेकिन आज तो वह कई सारे दृष्टांत देकर अपने विषय को समझा सकता है । शिक्षक के लिए काम तो बढा लेकिन शिक्षक इससे आनंदित भी है क्योकि उसे एक ज्ञान का भंडार मिल गया । तो अब शिक्षको के पास समय कम होता है । वह ज्ञान देता ही रहता है ।
ई से मिला ज्ञान प्रभावक है, आनंददायक है, हरेक विषय को लेकर है, असरकारक है मगर क्या ई में रहा ज्ञान प्रमाणित है ? उसमें हमें विभिन्न ज्ञान मिल सकते है तो शिक्षक की स्थिति यहां पर उस हनुमानजी कि तरह हो जाती है कि जडीबुट्टी कौन सी है ?  उस समय अध्यापक एवं अध्येता दोनो अपने विचारोनुरूप ज्ञान ग्रह करने लगते है । विचार दूसरे के प्रभाव में भी हो सकता है । तब बात बहुत गंभीर हो जाती है । सामान्य रूप से पाठ्यपुस्तक के जरिये जो ज्ञान दिया जाता है उसमें से एक उदाहरण लेते है गुजारत के आठवी कक्षा की हिन्दी में एक कविता है तेरी है जमी उस कविता के माध्यम से यह सिख मिलती है कि यह दुनिया ईश्वर ने बनाई है सारा दुनिया का कर्ता हर्ता ईश्वर है उसकी ईच्छा से ही हम जीते है और उसकी ईच्छा से ही हम मरते है इससे छात्र यह ज्ञान प्राप्त करता है कि सबकुछ जो दुनिया में होता है वह कोई इश्वर है और वही करता है हमारे हाथ में कुछ नही है। विचार महत्त्वपूर्ण है लेकिन क्या यह बात प्रमाणित है ?  दुनिया में ऐसी भी विचारधारा है जो मानती है कि दुनिया अपने आप चलती है । ईश्वर नामकी कोई चिज नही होती । हम ही अपने आपको आगे ले जा सकते है । दुनिया में जो होता है वह कारण(REASON) के परिणाम होता है । दोनो विचार महत्त्वपूर्ण है लेकिन विरोधाभासी है । जब छात्र उस दुसरे विचार को भी देखेगा तब वह असंमजस में पडेगा उसे वह सामने वाले कि बात का विरोध करेंगा । जो ज्ञान प्रमाणित नही है वह ज्ञान असंमजस ही पैदा करता है यदि हम सत्य जानते ही नही है तो हम गलत ज्ञान तो कैसे दे सकते है ?
यदि प्रमाणित पाठ्यपुस्तक के द्वारा दिया गया ज्ञान असंमजपूर्ण हो जाता है तो ई से क्या नहीं हो सकाता। ज्ञान देने वाला जिस विचार को मानता है वह तो उसी का ज्ञान ढूँढकर देगा क्योकि उसके विचार के समर्थन में काफी विडियो है। चित्र है आदि तो वह अपनी बात क्यो न सिखाए । ज्ञान देनेवाला समाज के हित के विचारोनुरूप है तो कोई तकलिफ देह नहीं हो सकता लेकिन यदि ज्ञान देनेवाला समाज के विरोध मे हो या समाज के हित के अनुसार के विचारोनुरूप न हो तो तब वह अपने हिसाब से ही विडियो दिखायेगा, चित्र भी ऐसे ही दिखायेगा ।
ज्ञान ग्रहण करनेवाले ज्ञान देनेवाले की बात से सहमती जताते है तो उसकी शिक्षा भी इसी हिसाब से होती है और एक समाज भी एक विचार पर चलने वाला हो सकता है ।  इसके जरिए कुछ भी हो सकता है ।  क्योकि शिक्षा कि ताकत से हम सब परिचित ही है ।
ई में प्रमाणित ज्ञान नहीं होता है दूसरा ई में हर कोई अपने विचार रख सकता है । तो हम इसे बेकाबू परिस्थिति ही कह सकते है । बेकाबू परिस्थिति पर काबू हमें रखना चाहिए । हमें तटस्थता पूर्ण रहकर पारदर्सिता पूर्ण रहकर इ के जरिए ज्ञान का आदान प्रदान करना चाहिए ।

Thursday, 5 July 2018

नास्तिक आस्तिक के एक कार्य मात्र से नस्तिक नही रहता


नास्तिक आस्तिक के एक कार्य मात्र से नस्तिक नही रहता
आप सोचेगे कि लेखक क्या कह रहा है । हा दोस्तो बात सही है । आस्तिकता मे से नास्तिकता खडी होती है तो नास्तिकता मे से आस्तिकता भी खडी हो सकती है । शायद नास्तिक कही संपूर्ण रूप से नास्तिक न बना हो जो कि एसा संभव  नही है क्योकि जो नास्तिक बनता है वह आस्तिकता का संपूर्ण विद्रोह करके आता है । लेकिन प्रश्न तब उठता है जब नास्तिक एक आस्तिक को समझाने जाते है । नास्तिक ऐसा समझता होता है कि मैने सत्य जान लिया है तो वह सब को सीख देता रहता है । और आस्तिक उसे टालता रहता है । आस्तिक के पास काफी कहानिया है जो नास्तिक के तर्को के उत्तर के रूप में आ जाया करती है । नास्तिक बनता है तो उसे अपने मन को शुद्ध करना पडता है । अंधश्रद्धा से दूर होना पडता है । असत्य बातो से दूर होना पडता है । उसे झूठी कहानियो से दूर रहना पडता है । उसे चमत्कारिक विज्ञान के अभाव की कहानियो से दूर रहना पडता है । अहिंसा को अपनाकर जिवन जिना पडता है ।  और  हिसा से दूर रहना होता है असे अपनी आप कि शक्ति को बढाना होता है तो वह योग आदि को ज्यादा महत्व देता है तब जकार एक नास्तिक बना जाता है । उसमें अंधश्रद्धा नही होती । यदि यह गुण किसी में है तो वह नास्तिक है । जो कि नास्तिक के ये गुण अति महत्वपूर्ण होने से नास्तिक इसे अपनाता है लेकिन कुछ बाते वह अपना लेता है वह अहिंसा, सत्य आदि जैसे गुणो अपना लेता है लेकिन वह अंधश्रद्धा मे जीता है तो वह नास्तिक नही कहलाता भले उसने नास्तिको के सभी गुणो को अपना लिया लेकिन एक गुण अपनाने मात्र से वह नास्तिक नही रहता है । इसलिए नास्तिक को अपने कदम संभल संभल कर ऱखने होगे । उसे यह सोचना होगा कि वह तभी नास्तिक कहलायेगा जब वह अहिसा से जिवन यापन करेगा , सत्य को अपनायेगा । अंधश्रद्धा को छोडेगा । अपने पर पूर्ण श्रद्धा से जिवन यापन करेगा और समाज  कि बदियो को अस्विकार करेगा तभी वह नास्तिक बन सकता है । उसने इसमे से एक को भी न अपनाया तो वह नास्तिक नही रहता है ।
नास्तिक का कर्म आस्तिको का विरोध करना कदापि नही है नास्तिक को केवल नास्तिकता को अपनाकर जिना है तो नास्तिक को एक वैज्ञानिक अभिगम को अपनाकर जिना है ।

Wednesday, 4 July 2018

भाषा के अलग रूप अशुद्ध नही है


भाषा के अलग रूप अशुद्ध नही है
आज हम भाषा पर कुछ बाते करे । भाषा के संदर्भ में क्या बताना  भाषाने ही तो हमे घडा है । भाषा के महत्व के संदर्भ में हम सब जानते ही है। भाषा के कुछ लक्षण है जिसमें से एक लक्षण यह भी है कि भाषा अपने आप में बदलाव लाती है । लेकिन उस बदलाव को हम पकड भी सकते है । भाषा कि प्रकृति को हम रोक नही सकते । भाषा हर विस्तार के अनुरूप एक रूप (फोर्म) में होती है । भाषा में केवल बोलचाल का  ही कार्य नही होता । भाषा के माध्यम से लिखावट का कार्य होता है, विचारो का आदान प्रदान होता है । इतिहास संजोया जाता है । भाषा के माध्यम से परम्पराये भी चलती है । अलग अलग विस्तार के अनुरूप भाषा का एक सहज रूप होता है । भाषा अपना कार्य करती ही है । मगर मानवी उसमें दखलगीरि क्यो करता है ? मानवी की आदत यह रही है कि उसे कृत्रिमता ज्यादा पसंद आती है । कृत्रिमता को वह सटिक समझता है । हर चिज में कृत्रिमता लाना चाहता है । मानवी अपनी बनाइ चिज को ज्यादा महत्व देता है । उसे उसकी बनाई चिज सटिक लगती है । लेकिन इश्वर की बनाइ चिज उसे पसंद नही आती वह उसें सटिक बनायेगा । वह ऐसा समझता है कि उसने कितना सटिक बना दिया । उसे उसकी बनाइ चिज ज्यादा पसंद आती है तो मानवी को सहज भाषा पसंद नही आती । क्योकि उसे लगता है कि यह सहज भाषा सटिक नही है । तो वह इस सहज भाषा को अशुद्ध मानेगा । वह अपने नियम बनाता है और सबको बताता है कि भाषा कि शुद्धता तो यह है । लेकिन वह यह नही जानता कि भाषा कि शुद्धता के बिना ही समाज व्यवहार सदियो से चला रहा है ।
भाषा शुद्धता यानि मानवी ने निश्चित किया कि यह भाषा का रूप शुद्ध है बाकी रूप अशुद्ध है । तो समाज पृष्ठभूमि पर यह होता है कि भाषा के अलग रूप को अपनाने वाले मानवी को अनपढ, मूर्ख, अशिक्षित आदि माना जाता है । उसकी भाषा सुनकर सभी हंसने लगते है । देखो यह तो गलत बोलरहा है । मानवी की ऐसा विचार कि शब्द को इसी तरह ही बोलना चाहिए । अलग रूप में नही । इस बात को इतना महत्व दिया जाता है कि बच्चे कि परीक्षा में भी इसका ध्यान रखा जाता है । गुजरात में तो यह स्थिति है कि मातृभाषा के विषय में सब बच्चो को कम अंक आते है । इतना जड होना और वह भी एक भाषा के प्रति । भाषा को बांधने कि कोशिश क्यो करते हो ?
भाषा में खुद कृत्रिमता डाल रहे है और दूसरे जो कि सहज भाषा का प्रयोग कर रहे है उसे गुन्हेगार मान रहे हो । गुजराती भाषा में तो उसका एक शब्द कोष है और कहा जाता है कि उसे ही मान्य रखना है । शब्द का अर्थ यही हा दूसरा नही । कैसी विटंबणा है । बच्चो को भी सिखाया जाता है कि तुम्हे इसी तरह से हही बोलना है । शुद्ध उच्चारण जैसी परिकल्पना भी गुजरात में चलती है । इस तररह से बोलो यह शुद्ध गुजराती है और इस तरह से बोलोगे तो वह अशुद्ध गुजाराती है ।  जैसे गुजरात का उत्तर भाग में गुजराती को इस तरह बोला जाता है
गांधीजी तो वह बोलेंगे गोंधीजी वहा की संस्कृति ही इस तरह की है कि वह सब शब्द को ओ लगा कर बोलते है ऐसा दुनिया कि कइ भाषा में देखने को मिलता है अब्राहम का इब्राहिम हो गाया तो यहा पर इ लगा कर बात करते है । तो वह सहज बात है लेकिन गुजराती के प्रकांड उसे गलत मानते है यदि छात्र ने परीक्षा में गांधीजी कि जगह गोंधीजी लिख दिया तो उसके अंक काट दिये जायेगे । गुजरात कि एक कम्युनिटि कुछ इस तरह से बोलती है जैसे
मारे खावु छे. इस वाक्य में अंत में छे है मगर वह कम्युनिटि कुछ एसा बोलती है मार खावु स. तो गुजराती के प्रकांड बोलेगे वह कम्युनिटि अशुद्ध बोल रही है । तो हिन्दी भी तो गलत होगी क्योकि हिन्दी वाले तो अन्त में छे कि जगह है लगाते है । वहा नही बोलेगे । विस्तार और संस्कृति के अनुरूप भाषा में बदलाव होता ही है । मानवी बचपन से ही वह सिखता आया है तो वह टोन उसकी प्रकृति बन गइ है और उस प्रकृति को बदलने कि बात गुजरात में कि जाती है । पहले तो यही बात हास्यात्मक लगती है कि एक भाषा को अशुद्ध माना जाता है । यदि किसी मानवी ने अपनी इच्छापूर्वक कोइ भाषा बनाइ हो या छेडछाड करता है तो हम कह सकते है कि यह तो कृत्रिमता है और यह अशुद्ध है तो बात कुछ हजम हो सकती है लेकि हजारो वर्षो से जो भाषा बोली जाती है । उस भाषा में उस संस्कृति का लोक साहित्य है उस भाषा में उसका इतिहास है उस भाषा में उसका व्यवहार है उसे थोडा पढे लिखे या अपने आप को भाषा के प्रकांड मानने वाले अशुद्ध कह दे यह बात तो हास्यात्मक ही  तो होगी ।
भाषा के एक ही रूप को पकडे रहने से क्या होगा ? माने कि उस क्षेत्र के सभी शुद्ध माने जाने वाले रूप को ही अपना लेते है तो क्या हो सकता है । तो यह होगा की आनेवाली पिढि अपनी संस्कृति की भाषा नही जान पायेंगे । उसे यह कभी नही पता चलेगा कि उसकी कोइ अपनी संस्कृति थी । यानि एक हजारो वर्षो से बनी संस्कृति लुप्त हो जायेगी । एक संस्कृति अपना हजारो सालो का इतिहास भूल जायेंगी । कोइ पुरानी लिपि मिलती है तो उसका अर्थ निकालपाना कठिन हो जायेगा ।
भाषा के एक ही रूप को शुद्ध मानना और उसे प्रेरणा देना गंभीर समस्या है । समाज उस शुद्ध रूप को ही सही मानेगा । समाज  उस शुद्ध रूप को ही महत्व देगा और लोग अपनी मातृभाषा को ही सीखना चाहेगा । समाज में हिनपत का भाव पैदा होगा । जो अपनी संस्कृति की भाषा जो कि वह शुद्ध माने जाने वाले रूप से अलग है उसे बोलेगा तो उसे ऐसा लगेगा कि वह गलत बोल रहा है तो वह अपने को निचा समझेगा । वह कम्युनिटि जब छे कि जगह स बोलेगी तो उसे ऐसा होगा कि वह आज भी पुराने है वह गलत है । ऐसे गुजारत में देखने को मिलता है । आज उस कम्युनिटि में अब छे कि जगह स कम लोग बोलते है यानि उस रूप का ह्रास हो रहा है । ऐसा भाषा के कइ रूपो के साथ हो चुका है । इतनी बर्बादी इस वजह से हो रही है ।
हमें यह समजना एवं समझाना होगा कि भाषा कभी अशुद्ध नही होती । हरेक भाषा अपने शुद्ध रूप में ही होती है । भाषा में बदलाव होना सहज है । यदि हम भाषा के अलगरूप को अपना रहे है तो यह बात हिन बात नही है । हमें गर्व होना चाहिए कि हमारी संस्कृति की अपनी बोली है । उसके अपने टॉन है । जिस तरह गुजराती वाले गुजारती को बचाने के लिए जिस तरह संस्कृत वाले स्सकृत को बचाने के लिए आंदोलन, कार्य़क्रम कर रहे है उसी तरह उस विस्तार के लोगो को भी अपनी बोली अपने टॉन आदि को बचाये रखना चाहिए । और गर्व महसूस कर अपनी बोली को बोलते रहना चाहिए ।

Tuesday, 3 July 2018

क्या योग भी नास्तिक हो गया है ?


क्या योग भी नास्तिक हो गया है ?
आज नास्तिकता बढती जा रही है । लोग नास्तिक बनते जा रहे है । तो उसका प्रभाव योग पर पडना सहज है । योग इन्सान तो नही कि वह नास्तिक या आस्तिक हो लेकिन योग को यदि समझने कि कोशिश करेंगे तो आधुनिक योग कही न कही नास्तिकता को ज्यादा प्रधानता देता है । योग कि प्राचिनता पतंजलि जूडी है एसा माना जाता है लेकिन इससे पहले योग कहा था इस विषय में कोइ कम ही बोलना चाहेगा । चलो हम योग के अर्थ को देखते है । योग का अर्थ होता है जुडना । इश्वर से जुडना । यानि यह एक आस्तिक विचार है । अगर इस संदर्भ में देखे तो ऐसा कोइ भी कार्य जो ईश्वर को जोडने में सहायक होता है वह योग है । सामान्य रूप से आस्तिकता यह बताती है कि इश्वर से जुडने का मार्ग अपने शरीर को कष्ट देना है । तो वह सालो तक अपने हाथ को उठाये रखते है और बोलते है मे योग कर रहा हू । सुबह उठकर माला जाप करेंगे तो कहेगे योग कर रहा हू । आस्तिकता जहा पर भी होती है वहा शरीर को कष्ट देने में विश्वास रखती है । वह शरीर को कष्ट इसलिए देते है कि उससे इश्वर से उनका जुडाव हो । यानि उसके पिछे शरीर के हित में कोइ बात नही होती । शरीर को कष्ट देना महत्वपूर्ण है शरीर को सुरक्षित करना महत्वपूर्ण नही है । शरीर को किसी भी रूप में लंबें समय इसलिये रखते है क्योकि उससे इश्वर प्रसन्न हो । वह एसी कोइ भी बात नही करते जिससे इश्वर नाराज हो ।  वह जंगल में जाते थे एक ही मुद्रा में बैठते थे । कइ सालो तक बैठते थे । केवल इस आशा में कि इश्वर से उनका जुडाव हो जाये । तो वह अलग अलग मुद्रा में जंगल में जाकर लंबी अवधि तक बैठा करते थे और यह मानते थे कि इससे इश्वर से उनका जुडाव हो जायेगा । एसी हरेक क्रिया या मुद्रा को योग माना जाता है जिससे इश्वर से जुडाव हो वह क्रिया शायद बैठने, सोने, खाने, भूखे रहने आदि के संदर्भ में हो सकती है । कोइ भी क्रिया जिससे इश्वर से जुडाव होता है वह योग कहलाता था । इसका मतलब यह ता है कि जो क्रिया इश्वर से जुडनेमे सहायता नही देती वह योग नही मानी जाती  थी । योग करने का कारण इश्वर से जुडने का था । इस अर्थ के संदर्भ में देखे तो योग केवल इश्वर से जुडने की क्रिया है । उसमें शरीर हीत की बात नही होनी चाहिए । उसमें कोइ तर्कता भी नही होनी चाहिए । इसलिए योग को आस्तिक माना जाना योग्य था लेकिन आज योग का अर्थ बदलना होगा । क्योकि योग को इश्वर के साथ जुडाव के लिए नही किया जाता है । इश्वर को हटा दिया गया है । योग इसलिए किया जाता है कि जिससे आपका शरीर तन्दुरस्त बने आराम पूर्ण बने कष्ट से दूर रह सके । जब कि आस्तिकता कष्ट को ज्यादा महत्व देती है । शरीर से कष्ट देने से इश्वर प्रसन्न होगे । लेकिन आज का योग तो विरोधी अर्थ में प्रयुक्त हो रहा है । वह तो शरीर को कष्ट न हो इसीलिए किया जाता है । दूसरी बात आज उसे कुछ निश्चित समय मर्यादा में किया जाता है । जब कि आस्तिकता में योग निश्चित समय मर्यादा में नही होता । वहा तो करते ही रहना है वरना इश्वर से आपका जुडाव नही होगा । आस्तिक मत इश्वर को ही कर्ता हर्ता मानते है तो वह यह कभी नही स्वीकार कर सकते कि योग से उनका शरीर शुद्ध हुआ है वह तो यही मानगे कि इश्वर ने उनका शरीर शुद्ध किया । योग से केवल इश्वर से जुडा जाता है । योग इसलिये करना चाहिए ताकि आप इश्वर से जुड सके । शरीर शुद्धि उनका उद्देश्य होता ही नही है । लेकिन आज योग शरीर शुद्धि के लिये किया जाता है । आज योग ने इश्वर को हटा दिया है तो हम कह सकते है कि योग भी नास्तिक बनता जा रहा है ।