भाषा के अलग रूप अशुद्ध नही है
आज हम भाषा पर कुछ बाते करे । भाषा के संदर्भ में क्या बताना भाषाने ही तो हमे घडा है । भाषा के महत्व के
संदर्भ में हम सब जानते ही है। भाषा के कुछ लक्षण है जिसमें से एक लक्षण यह भी है
कि भाषा अपने आप में बदलाव लाती है । लेकिन उस बदलाव को हम पकड भी सकते है । भाषा
कि प्रकृति को हम रोक नही सकते । भाषा हर विस्तार के अनुरूप एक रूप (फोर्म) में होती है ।
भाषा में केवल बोलचाल का ही कार्य नही
होता । भाषा के माध्यम से लिखावट का कार्य होता है, विचारो का आदान प्रदान होता है
। इतिहास संजोया जाता है । भाषा के माध्यम से परम्पराये भी चलती है । अलग अलग
विस्तार के अनुरूप भाषा का एक सहज रूप होता है । भाषा अपना कार्य करती ही है । मगर
मानवी उसमें दखलगीरि क्यो करता है ? मानवी की आदत यह रही है कि उसे कृत्रिमता ज्यादा पसंद आती
है । कृत्रिमता को वह सटिक समझता है । हर चिज में कृत्रिमता लाना चाहता है । मानवी
अपनी बनाइ चिज को ज्यादा महत्व देता है । उसे उसकी बनाई चिज सटिक लगती है । लेकिन
इश्वर की बनाइ चिज उसे पसंद नही आती वह उसें सटिक बनायेगा । वह ऐसा समझता है कि
उसने कितना सटिक बना दिया । उसे उसकी बनाइ चिज ज्यादा पसंद आती है तो मानवी को सहज
भाषा पसंद नही आती । क्योकि उसे लगता है कि यह सहज भाषा सटिक नही है । तो वह इस
सहज भाषा को अशुद्ध मानेगा । वह अपने नियम बनाता है और सबको बताता है कि भाषा कि
शुद्धता तो यह है । लेकिन वह यह नही जानता कि भाषा कि शुद्धता के बिना ही समाज
व्यवहार सदियो से चला रहा है ।
भाषा शुद्धता यानि मानवी ने निश्चित किया कि यह भाषा का रूप शुद्ध है बाकी रूप
अशुद्ध है । तो समाज पृष्ठभूमि पर यह होता है कि भाषा के अलग रूप को अपनाने वाले
मानवी को अनपढ, मूर्ख, अशिक्षित आदि माना जाता है । उसकी भाषा सुनकर सभी हंसने
लगते है । देखो यह तो गलत बोलरहा है । मानवी की ऐसा विचार कि शब्द को इसी तरह ही
बोलना चाहिए । अलग रूप में नही । इस बात को इतना महत्व दिया जाता है कि बच्चे कि
परीक्षा में भी इसका ध्यान रखा जाता है । गुजरात में तो यह स्थिति है कि मातृभाषा
के विषय में सब बच्चो को कम अंक आते है । इतना जड होना और वह भी एक भाषा के प्रति
। भाषा को बांधने कि कोशिश क्यो करते हो ?
भाषा में खुद
कृत्रिमता डाल रहे है और दूसरे जो कि सहज भाषा का प्रयोग कर रहे है उसे गुन्हेगार
मान रहे हो । गुजराती भाषा में तो उसका एक शब्द कोष है और कहा जाता है कि उसे ही
मान्य रखना है । शब्द का अर्थ यही हा दूसरा नही । कैसी विटंबणा है । बच्चो को भी
सिखाया जाता है कि तुम्हे इसी तरह से हही बोलना है । शुद्ध उच्चारण जैसी परिकल्पना
भी गुजरात में चलती है । इस तररह से बोलो यह शुद्ध गुजराती है और इस तरह से बोलोगे
तो वह अशुद्ध गुजाराती है । जैसे गुजरात
का उत्तर भाग में गुजराती को इस तरह बोला जाता है
गांधीजी तो वह
बोलेंगे गोंधीजी वहा की संस्कृति ही इस तरह की है कि वह सब शब्द को ओ लगा कर बोलते
है ऐसा दुनिया कि कइ भाषा में देखने को मिलता है अब्राहम का इब्राहिम हो गाया तो
यहा पर इ लगा कर बात करते है । तो वह सहज बात है लेकिन गुजराती के प्रकांड उसे गलत
मानते है यदि छात्र ने परीक्षा में गांधीजी कि जगह गोंधीजी लिख दिया तो उसके अंक
काट दिये जायेगे । गुजरात कि एक कम्युनिटि कुछ इस तरह से बोलती है जैसे
मारे खावु छे. इस वाक्य में
अंत में छे है मगर वह कम्युनिटि कुछ एसा बोलती है मार खावु स. तो गुजराती के
प्रकांड बोलेगे वह कम्युनिटि अशुद्ध बोल रही है । तो हिन्दी भी तो गलत होगी क्योकि
हिन्दी वाले तो अन्त में छे कि जगह है लगाते है । वहा नही बोलेगे । विस्तार और
संस्कृति के अनुरूप भाषा में बदलाव होता ही है । मानवी बचपन से ही वह सिखता आया है
तो वह टोन उसकी प्रकृति बन गइ है और उस प्रकृति को बदलने कि बात गुजरात में कि
जाती है । पहले तो यही बात हास्यात्मक लगती है कि एक भाषा को अशुद्ध माना जाता है
। यदि किसी मानवी ने अपनी इच्छापूर्वक कोइ भाषा बनाइ हो या छेडछाड करता है तो हम
कह सकते है कि यह तो कृत्रिमता है और यह अशुद्ध है तो बात कुछ हजम हो सकती है लेकि
हजारो वर्षो से जो भाषा बोली जाती है । उस भाषा में उस संस्कृति का लोक साहित्य है
उस भाषा में उसका इतिहास है उस भाषा में उसका व्यवहार है उसे थोडा पढे लिखे या
अपने आप को भाषा के प्रकांड मानने वाले अशुद्ध कह दे यह बात तो हास्यात्मक ही तो होगी ।
भाषा के एक ही रूप
को पकडे रहने से क्या होगा ? माने कि उस क्षेत्र के सभी
शुद्ध माने जाने वाले रूप को ही अपना लेते है तो क्या हो सकता है । तो यह होगा की
आनेवाली पिढि अपनी संस्कृति की भाषा नही जान पायेंगे । उसे यह कभी नही पता चलेगा
कि उसकी कोइ अपनी संस्कृति थी । यानि एक हजारो वर्षो से बनी संस्कृति लुप्त हो जायेगी
। एक संस्कृति अपना हजारो सालो का इतिहास भूल जायेंगी । कोइ पुरानी लिपि मिलती है
तो उसका अर्थ निकालपाना कठिन हो जायेगा ।
भाषा के एक ही रूप
को शुद्ध मानना और उसे प्रेरणा देना गंभीर समस्या है । समाज उस शुद्ध रूप को ही
सही मानेगा । समाज उस शुद्ध रूप को ही
महत्व देगा और लोग अपनी मातृभाषा को ही सीखना चाहेगा । समाज में हिनपत का भाव पैदा
होगा । जो अपनी संस्कृति की भाषा जो कि वह शुद्ध माने जाने वाले रूप से अलग है उसे
बोलेगा तो उसे ऐसा लगेगा कि वह गलत बोल रहा है तो वह अपने को निचा समझेगा । वह
कम्युनिटि जब छे कि जगह स बोलेगी तो उसे ऐसा होगा कि वह आज भी पुराने है वह गलत है
। ऐसे गुजारत में देखने को मिलता है । आज उस कम्युनिटि में अब छे कि जगह स कम लोग
बोलते है यानि उस रूप का ह्रास हो रहा है । ऐसा भाषा के कइ रूपो के साथ हो चुका है
। इतनी बर्बादी इस वजह से हो रही है ।
हमें यह समजना एवं
समझाना होगा कि भाषा कभी अशुद्ध नही होती । हरेक भाषा अपने शुद्ध रूप में ही होती
है । भाषा में बदलाव होना सहज है । यदि हम भाषा के अलगरूप को अपना रहे है तो यह
बात हिन बात नही है । हमें गर्व होना चाहिए कि हमारी संस्कृति की अपनी बोली है ।
उसके अपने टॉन है । जिस तरह गुजराती वाले गुजारती को बचाने के लिए जिस तरह संस्कृत
वाले स्सकृत को बचाने के लिए आंदोलन, कार्य़क्रम कर रहे है उसी तरह उस विस्तार के
लोगो को भी अपनी बोली अपने टॉन आदि को बचाये रखना चाहिए । और गर्व महसूस कर अपनी
बोली को बोलते रहना चाहिए ।
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