इ-लर्निंग को कोई पकडो भाई !
ई ने काफी नाम कमाया है । एक समय था पुस्तकालय यह काम करता था । लेकिन
पुस्तकालय इतना महत्त्वपूर्ण होने बावजूद भी अपने पिछे लर्निंग विशेषण न जोड सका ।
ई की अपनी विशेषताए है और मानवी की उन्नत खोज है यह बात तो है ही मगर उसके पिछे
लर्निंग विशेषण लग रहा है तो उसे हमें कन्ट्रोल भी करना चाहिए । ई से देखे तो बेकाबू लर्निंग भी हो सकता है और काबू लर्निंग
भी हो सकता । और हा यह प्रश्न तो खडा ही है कि क्या ई को ईतना बडा विशेषण देना
चाहिए ? चूँ कि उसे आज यह विशेषण लग रहा है तो
हमें उसके संदर्भ में बात जरूर करनी चाहिए । उसके संदर्भ में चर्चा करनी ही चाहिए
।
ई काफी गति से फैल रहा है । आज गाव के स्कूल के वर्ग तक भी पहूंच गया है । और
शिक्षक के पास अनगिनत दृष्टांत है । पहले वह अपनी आसपास की परिस्थितियो के हिसाब
से ही दृष्टांत दे पाता था लेकिन आज तो वह कई सारे दृष्टांत देकर अपने विषय को
समझा सकता है । शिक्षक के लिए काम तो बढा लेकिन शिक्षक इससे आनंदित भी है क्योकि
उसे एक ज्ञान का भंडार मिल गया । तो अब शिक्षको के पास समय कम होता है । वह ज्ञान
देता ही रहता है ।
ई से मिला ज्ञान प्रभावक है, आनंददायक है, हरेक विषय को लेकर है, असरकारक है
मगर क्या ई में रहा ज्ञान प्रमाणित है ? उसमें हमें विभिन्न ज्ञान मिल सकते है तो शिक्षक की स्थिति
यहां पर उस हनुमानजी कि तरह हो जाती है कि जडीबुट्टी कौन सी है ? उस समय अध्यापक एवं अध्येता दोनो अपने
विचारोनुरूप ज्ञान ग्रह करने लगते है । विचार दूसरे के प्रभाव में भी हो सकता है ।
तब बात बहुत गंभीर हो जाती है । सामान्य रूप से पाठ्यपुस्तक के जरिये जो ज्ञान दिया
जाता है उसमें से एक उदाहरण लेते है गुजारत के आठवी कक्षा की हिन्दी में एक कविता
है तेरी है जमी उस कविता के माध्यम से यह सिख मिलती है कि यह दुनिया ईश्वर ने बनाई
है सारा दुनिया का कर्ता हर्ता ईश्वर है उसकी ईच्छा से ही हम जीते है और उसकी
ईच्छा से ही हम मरते है इससे छात्र यह ज्ञान प्राप्त करता है कि सबकुछ जो दुनिया में
होता है वह कोई इश्वर है और वही करता है हमारे हाथ में कुछ नही है। विचार
महत्त्वपूर्ण है लेकिन क्या यह बात प्रमाणित है ? दुनिया में ऐसी भी
विचारधारा है जो मानती है कि दुनिया अपने आप चलती है । ईश्वर नामकी कोई चिज नही
होती । हम ही अपने आपको आगे ले जा सकते है । दुनिया में जो होता है वह कारण(REASON) के परिणाम होता
है । दोनो विचार महत्त्वपूर्ण है लेकिन विरोधाभासी है । जब छात्र उस दुसरे विचार
को भी देखेगा तब वह असंमजस में पडेगा उसे वह सामने वाले कि बात का विरोध करेंगा ।
जो ज्ञान प्रमाणित नही है वह ज्ञान असंमजस ही पैदा करता है यदि हम सत्य जानते ही
नही है तो हम गलत ज्ञान तो कैसे दे सकते है ?
यदि प्रमाणित पाठ्यपुस्तक के द्वारा दिया गया ज्ञान असंमजपूर्ण हो जाता है तो
ई से क्या नहीं हो सकाता। ज्ञान देने वाला जिस विचार को मानता है वह तो उसी का
ज्ञान ढूँढकर देगा क्योकि उसके विचार के समर्थन में काफी विडियो है। चित्र है आदि
तो वह अपनी बात क्यो न सिखाए । ज्ञान देनेवाला समाज के हित के विचारोनुरूप है तो
कोई तकलिफ देह नहीं हो सकता लेकिन यदि ज्ञान देनेवाला समाज के विरोध मे हो या समाज
के हित के अनुसार के विचारोनुरूप न हो तो तब वह अपने हिसाब से ही विडियो दिखायेगा,
चित्र भी ऐसे ही दिखायेगा ।
ज्ञान ग्रहण करनेवाले ज्ञान देनेवाले की बात से सहमती जताते है तो उसकी शिक्षा
भी इसी हिसाब से होती है और एक समाज भी एक विचार पर चलने वाला हो सकता है । इसके जरिए कुछ भी हो सकता है । क्योकि शिक्षा कि ताकत से हम सब परिचित ही है ।
ई में प्रमाणित ज्ञान नहीं होता है दूसरा ई में हर कोई अपने विचार रख सकता है
। तो हम इसे बेकाबू परिस्थिति ही कह सकते है । बेकाबू परिस्थिति पर काबू हमें रखना
चाहिए । हमें तटस्थता पूर्ण रहकर पारदर्सिता पूर्ण रहकर इ के जरिए ज्ञान का आदान
प्रदान करना चाहिए ।
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