Saturday, 11 February 2017

समावेशी शिक्षा एवं समावेशी विकास

समावेशी शिक्षा
यह लेख जानकारी हेतु है ।  इसमे अन्य वेबसाइटस मे से लिया गया है
             
समावेशी शिक्षा  एक शिक्षा प्रणाली है।
शिक्षा का समावेशीकरण यह बताता है कि विशेष शैक्षणिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक सामान्य छात्र और एक अशक्त या विकलांग छात्र को समान शिक्षा प्राप्ति के अवसर मिलने चाहिए। इसमें एक सामान्य छात्र एक अशक्त या विकलांग छात्र के साथ विद्यालय में अधिकतर समय बिताता है। पहले समावेशी शिक्षा की परिकल्पना सिर्फ विशेष छात्रों के लिए की गई थी लेकिन आधुनिक काल में हर शिक्षक को इस सिद्धांत को विस्तृत दृष्टिकोण में अपनी कक्षा में व्यवहार में लाना चाहिए।
समावेशी शिक्षा या एकीकरण के सिद्धांत की ऐतिहासक जड़ें कनाडा और अमेरिका से जुड़ीं हैं। प्राचीन शिक्षा पद्धति की जगह नई शिक्षा नीति का प्रयोग आधुनिक समय में होने लगा है। समावेशी शिक्षा विशेष विद्यालय या कक्षा को स्वीकार नहीं करता। अशक्त बच्चों को सामान्य बच्चों से अलग करना अब मान्य नहीं है। विकलांग बच्चों को भी सामान्य बच्चों की तरह ही शैक्षिक गतिविधियों में भाग लेने का अधिकार है।
पूर्णत: समावेशी विद्यालय तथा सामान्य/विशेष शैक्षिक नीतियाँ
छात्रों तथा शिक्षा नीतियों का वर्गीकरण
वैकल्पिक समावेशी कार्यक्रम, विद्यालयी प्रक्रिया और सामाजिक विकास
कानूनी मुद्दे शैक्षिक कानून और विकलांगता कानून
संसार में समावेशी शिक्षा का मूल्यांकन
समावेशी शिक्षा और आवश्यक संसाधन के सिद्धांत
समावेशी कक्षाओं की सामान्य प्रथाएँ
साधारणतः छात्र एक कक्षा में अपनी आयु के हिसाब से रखे जाते हैं चाहे उनका अकादमिक स्तर ऊँचा या नीचा ही क्यों न हो। शिक्षक सामान्य और विकलांग सभी बच्चों से एक जैसा बर्ताव करते हैं। अशक्त बच्चों की मित्रता अक्सर सामान्य बच्चों के साथ करवाई जाती है ताकि ऐसे ही समूह समुदाय बनता है। यह दिखाया जाता है कि एक समूह दूसरे समूह से श्रेष्ठ नहीं है। ऐसे बर्ताव से सहयोग की भावना बढती है।
शिक्षक कक्षा में सहयोग की भावना बढ़ाने के लिए कुछ तरीको क उपयोग करते हैं:
§  समुदाय भावना को बढ़ाने के लिए खेलों का आयोजन
§  विद्यार्थियों को समस्या के समाधान में शामिल करना
§  किताबों और गीतों का आदान-प्रदान
§  सम्बंधित विचारों का कक्षा में आदान-प्रदान
§  छात्रों में समुदाय की भावना बढ़ाने के लिए कार्यक्रम तैयार करना
§  छात्रों को शिक्षक की भूमिका निभाने का अवसर देना
§  विभिन्न क्रियाकलापों के लिए छात्रों का दल बनाना
§  प्रिय वातावरण का निर्माण करना
§  बच्चों के लिए लक्ष्य-निर्धारण
§  अभिभावकों का सहयोग लेना
§  विशेष प्रशिक्षित शिक्षकों की सेवा लेना
दल शिक्षण पद्धति द्वारा सामान्यतः व्यवहार में आने वाली समावेशी प्रथाएँ
एक शिक्षा, एक सहयोगइस मॉडल में एक शिक्षक शिक्षा देता है और दूसरा प्रशिक्षित शिक्षक विशेष छात्र की आवश्यकताओं को और कक्षा को सुव्यवस्थित रखने में सहयोग करता है।
§  एक शिक्षा एक निरीक्षण – एक शिक्षा देता है दूसरा छात्रों का निरीक्षण करता है।
§  स्थिर और घूर्णन शिक्षा — इसमें कक्षा को अनेक भागों में बाँटा जाता है। मुख्य शिक्षक शिक्षण कार्य करता है दूसरा विशेष शिक्षक दूसरे दलों पर इसी की जाँच करता है।
§  समान्तर शिक्षा – इसमें आधी कक्षा को मुख्य शिक्षक तथा आधी को विशिष्ट शिक्षा प्राप्त शिक्षक शिक्षा देता है। दोनों समूहों को एक जैसा पाठ पढ़ाया जाता है।
§  वैकल्पिक शिक्षा – मुख्य शिक्षक अधिक छात्रों को पाठ पढ़ाता है जबकि विशिष्ट शिक्षक छोटे समूह को दूसरा पाठ पढ़ाता है।
§  समूह शिक्षा – यह पारंपरिक शिक्षा पद्धति है। दोनों शिक्षक योजना बनाकर शिक्षा देते हैं। यह काफ़ी सफल शिक्षण पद्धति है।
समावेशी शिक्षा महत्व-
Ø  समावेशी शिक्षा प्रत्येक बच्चो के लिए उच्च और उचित उममीदों के साथ उसकी व्यक्तिगत शक्तियों का विकास करती है ।
Ø  समावेशी शिक्षा अन्य छात्रो को अपनी उम्र के साथ कक्षा के जीवन में भाग लेने और व्यक्तिगत लक्ष्यों पर काम करने हेतु अभिप्रेरित करती है ।
Ø  समावेशी शिक्षा बच्चो को उनके शिक्षा के क्षेत्र में और उनके स्थानीय स्कूलों की गतिविधियों में उनके माता-पिता को भी शामिल करने की वकालत करती है ।
Ø  समावेशी शिक्षा सम्मान और अपनेपन की स्कूल संस्कृति के साथ-साथ व्यक्तिगत मतभेदों को स्वीकार करने के लिए भी अवसर प्रदान करती है।
Ø  समावेशी शिक्षा अन्य बच्चो, अपने स्वयं के व्यक्तिगत आवश्यक्ताओ और क्षमताओ के साथ प्रत्येक को एक व्यापक विविधता के साथ दोस्ती का विकास करने की क्षमता विकसित करती है ।
इस प्रकार समावेशी शिक्षा समाज के सभी बच्चो को शिक्षा की मुख्य धारा से जोडने की बात का समर्थन करती है ।
समावेशी शिक्षा का आशय विकलांग विद्यार्थियों (जिन्हें आजकल विशिष्ट आवश्यकताओं वाले विद्यार्थी कहा जाता है) को सामान्य बच्चों के साथ बिठाकर सामान्य रूप से पढ़ाना है, ताकि सामान्य बच्चों और विशिष्ट आवश्यकताओं वाले बच्चों में कोई भेदभाव न रहे तथा दोनों तरह के विद्यार्थी एक-दूसरे को ठीक ढंग से समझते हुए आपसी सहयोग से पठन-पाठन के कार्य को कर सकें।
समावेशी शिक्षा का एक व्यापक लक्ष्य यह भी प्रतीत होता है कि एक साथ शिक्षित होने पर भविष्य में समाज के अन्दर विशिष्ट आवश्यकता वाले व्यक्तियों के सरोकारों को आम लोग बेहतर ढंग से समझ सकें तथा उनमें उनके प्रति अपेक्षित संवेदनशीलता का विकास हो सके। समावेशी शिक्षा को प्रोत्साहित करने का अपना एक राजनीतिक अर्थशास्त्र भी है जो भू-मण्डलीकरण या उदारीकरण की प्रक्रियाओं से प्रेरित है। यह राजनीतिक अर्थशास्त्र इस मान्यता पर आधारित है कि सरकार को जनकल्याण, सामाजिक तथा गैर-उत्पादक कार्यों पर कम से कम खर्च करना चाहिए। विशिष्ट आवश्यकताओं वाले बच्चों के लिए विशेष विद्यालय चलाना महँगा सौदा है (वो भी विकलांगों की कम से कम पाँच श्रेणियों के लिए)। इसलिए समावेशी शिक्षा की अवधारणा को प्रोत्साहित किया जा रहा है।
समावेशी शिक्षा को जमीनी स्तर पर लागू करने के लिए देश के विभिन्न राज्यों के विकलांगों की मुख्य श्रेणियों- दृष्टिबाधित, अस्थिबाधितमूक-बधिरमन्दबुद्धि तथा स्वलीनता से ग्रसित लोगों को पढ़ाने के लिए अलग-अलग नामों से अंशकालीन शिक्षक एवं शिक्षिकाएँ रखे जाते हैं। इन्हें अधिकतर राज्यों में न्यूनतम मजदूरी से भी कम वेतन दिया जाता है तथा अपर्याप्त प्रशिक्षण।
          समावेशी शिक्षा, क्योंकि भू-मण्डलीकरण की देन है, इसलिए इसे अन्तर्राष्ट्रीय तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का भी व्यापक समर्थन हासिल है। इस समर्थन की भी अपनी राजनीति, गणित और विज्ञान है। विकलांगों के विषयों में कार्यरत विभिन्न जन-संगठनों तथा समाजसेवी संस्थाओं की भी अपनी राजनीति है। किसी भी योजना से सबसे अधिक लाभ प्राप्त करने वाले अस्थिबाधित लोगों तथा मूकबधिर लोगों से जुड़े अत्यधिक संगठन समावेशन के नाम पर समावेशी योजनाओं के लाभों से अपेक्षाकृत वंचित लोगों, खासतौर पर दृष्टिबाधित लोगों के अधिकतर संगठन इसका विरोध करते हैं।
         इस तरह समावेशी शिक्षा के समूचे मॉडल में शिक्षा की पहुँच तथा शिक्षा की गुणवत्ता दोनों ही गम्भीर प्रश्नों के घेरे में है। इसके लिए चलताऊ नीतियाँ तथा तात्कालिक मसलों को क्षणिक रूप से हल कर लेने की प्रवृत्तियाँ काफी हद तक जिम्मेदार हैं।

        समावेशन शब्द का अपने आप में कुछ खास अर्थ नहीं होता है । समावेशन के चारों ओर जो वैचारिक, दार्शनिक, सामाजिक और शैक्षिक ढ़ाँचा होता है वही समावेशन को परिभाषित करता है । समावेशन की प्रक्रिया में बच्चे को न केवल लोकतंत्र की भागीदारी के लिए सक्षम बनाया जा सकता है, बल्कि यह सीखने एवं विश्वास करने के लिए भी सक्षम बनाया जा सकता है कि लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए दूसरों के साथ रिश्ते बनाना, अर्न्तक्रिया करना भी समान रूप से महत्वपूर्ण है ।   
                                                                              (
एन.सी. एफ. 2005, पृष्ठ 96) 
·         स्वतंत्रता के बाद शिक्षा प्रणाली की क्या उपलब्धि रही है, यदि हम इस ओर ध्यान दें तो संभवतः हमें कुछ संतोषजनक आंकड़े मिलेंगे। आज भारत की विद्यालय शिक्षा व्यवस्था चीन के पश्चात् विश्व की दूसरी सबसे बड़ी शिक्षा व्यवस्था है । जहाँ तकरीबन 10 लाख स्कूलों में 2025 लाख बच्चों को पढ़ाने का काम लगभग 55 लाख शिक्षक कर रहे हैं। 82 प्रतिशत रिहाइशी इलाकों में एक किलोमीटर की परिधि के अन्दर प्राथमिक और 75 प्रतिशत रिहाइशी इलाकों में तीन किलोमीटर के अंदर उच्च प्राथमिक पाठशाला हैं। माध्यमिक स्तर की परीक्षा में भाग लेने वाले बच्चों में कम से कम 50 प्रतिशत बच्चे परीक्षा में उत्तीर्ण होते हैं। इस सबके पश्चात् भी वर्तमान में लाखों बालक शिक्षा की मुख्यधारा से वंचित है । बावजूद इसके आज भी हमारें विद्यालय ऐसे बालकों के लिए साधनहीन नजर आते है जिनकी विभिन्न ज्ञानेन्द्रिय, शारीरिक , बौद्धिकसामाजिक, आर्थिक कारणों के कारण कुछ विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकतायें है । 
वर्तमान में विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं वाले बालकों के लिए शिक्षा की दो प्रकार की व्यवस्थाएं है । एक वह जिन्हे हम विशेष विद्यालय कहते है, जो ज्यादातर शहरों मे स्थित आवासीय है ।  जिनका उदेद्श्य केवल एक प्रकार के विशिष्ट बालकों की विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं को पूरा करना होता है । और दूसरा तरीका है कि उन्हे अन्य सभी बालकों के साथ  आस-पड़ोस के सामान्य विद्यालय में भेजा जाये और वही उनकी विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं को पूरा करने की व्यवस्था कि जायें। यदि बालक इस प्रकार के विद्यालय में जाता है तो वह अपने अन्य भाई बहनों के समान अपने माँ बाप के साथ रह सकता है । दूसरा इस प्रकार के विद्यालयों में  सभी बालक एक दूसरे से मिलजुल कर एक दूसरे से सीख सकते है । इसके अलावा बालक को बाद में अपने आपको दुनिया में समायोजित करने में सहायता मिलती है क्योंकि आखिरकार उसको रहना तो उसको उसी समाज में है जिसका कि वो हिस्सा होता है इसलिए क्यों न बालक को प्रारम्भ से ही उस माहौल में रखा जाये जहाँ उसे विद्यालय की शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् रहना है? इसलिए अच्छा है कि आरम्भ से बालक को  मुख्यधारा वाले ऐसे विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजा जाये जहाँ अन्य सामान्य बालक भी जाते है । इस अवधारणा के साथ समावेशित शिक्षा व्यवस्था प्रणाली का आरम्भ हुआ । समावेशी शिक्षा से तात्पर्य ऐसी शिक्षा प्रणाली से है जिसमें प्रत्येक बालक को चाहे वो विशिष्ट हो या सामान्य बिना किसी भेदभाव के, एक साथ, एक ही विद्यालय में, सभी आवश्यक तकनीकों व सामग्रियों के साथ, उनकी सीखने सिखाने के जरूरतों को पूरा किया जायें । 
समावेशी शिक्षा के मायने 
समावेशित शिक्षा कक्षा में विविधताओं को स्वीकार करने की एक मनोवृत्ति है जिसके अन्तर्गत विविध क्षमताओं वाले बालक सामान्य शिक्षा प्रणाली में एक साथ अध्ययन करते है । समावेशित शिक्षा के  दर्शन के अन्तर्गत प्रत्येक बालक अद्वितीय है और उसे अपने सहपाठियों  की भाँति विकसित करने के लिए कक्षा में विविध प्रकार के शिक्षण की आवश्यकता हो सकती है । बालक के पीछे  रह जाने के लिए उसे दोषी नही ठहराया जा सकता है, बल्कि उन्हें  कक्षा में भली प्रकार समाहित न कर पाने का जिम्मेदार अध्यापक को स्वंय समझना चाहिए । 
जिस प्रकार हमारा संविधान किसी  भी आधार पर किये जाने वाले भेदभाव को निषेध करता है, उसी प्रकार समावेशित शिक्षा  विभिन्न ज्ञानेन्द्रिय, शारीरिक , बौद्धिकसामाजिक, आर्थिक आदि कारणों से उत्पन्न किसी बालकों की, विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं के बावजूद उन बालकों  को भिन्न देखे जाने के बजाए स्वंत्रत अधिगमकर्त्तों के रूप में देखती है । 
समावेशित शिक्षा का महत्त्व एवं आवश्यकता 
·             समावेशित शिक्षा प्रत्येक बालक के लिए उच्च और उचित उम्मीदों के साथ, उसकी व्यक्तिगत शक्तियों का विकास करती है । 
·          प्रत्येक बालक स्वाभाविक रूप से सीखने के लिए अभिप्रेरित होता है । 
·          समावेशित शिक्षा अन्य बालकों, अपने स्वयं के व्यक्तिगत आवश्यकताओं और क्षमताओं के सामंजस्य स्थापित करने में सहयोग करती है । 
·            समावेशित शिक्षा सम्मान और अपनेपन की विद्यालय संस्कृति के साथ-साथ व्यक्तिगत मतभेदों को स्वीकार करने के लिए अवसर प्रदान करती है ।
·             समावेशित शिक्षा बालक को अन्य बालकों के समान  कक्षा गतिविधियों में भाग लेने और व्यक्तिगत लक्ष्यों पर कार्य करने के लिए अभिप्रेरित कर
·            समावेशित शिक्षा बालकों की शिक्षा गतिविधियों में उनके माता-पिता को भी सम्मिलित करने की वकालत करती है ।
समावेशित शिक्षा सही मायनों में शिक्षा का अधिकार जैसे शब्दों का रूपान्तरित रूप है जिसके कई उद्द्श्यों में से एक उद्देश्य है,विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं वाले बालकों को एक समतामूलक शिक्षा व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षा प्राप्त करने के अवसर प्रदान करना। समावेशित शिक्षा समाज के सभी बालकों को शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ने का समर्थन करती है 
शिक्षा में समावेशन के आधार 
·         प्रत्येक बालक स्वाभाविक रूप से सीखने के लिए अभिप्रेरित होता है ।
·             बालकों के सीखने के तौर तरीकों में विविधता होती है । अनुभवों के द्वारा, अनुकरण के माध्यम से, चर्चा, प्रश्न पूछना, सुननाचिंतन मनन, खेल क्रियाकलापों, छोटे व बड़े समूहों में गतिविधियों  करना  आदि  तरीकों के माध्यम से बालक अपने आसपास के परिवेश के बारे में जानकारी प्राप्त करता है । इसलिए प्रत्येक बालक को सीखने-सिखाने के क्रम में समुचित अवसर प्रदान करना आवश्यक है । 
·             बालकों को सीखने से पूर्व सीखने-सिखाने के लिए तैयार करना आवश्यक होता है इसके लिए सकारात्मक वातावरण निर्मित करने की जरूरत होती है ।
·            बालक उन्ही सीखी हुई बातों के साथ अपना संबंध स्थापित कर पाता है जिनके बारे में उसके अपने परिवेश के कारण भली-भाँति समझ विकसित हो चुकी हो। 
·             सीखने की प्रक्रिया विद्यालय के साथ साथ विद्यालय के बाहर भी निरन्तर चलती रहती है । अतः सीखने-सीखने की प्रक्रिया  कों इस प्रकार व्यवस्थित किये जाने की आवश्यकता है जिससे बालक पूर्ण रूप से उसमें सम्मिलित हो जाये और उसके बारे में अपने आधार पर अपनी समझ विकसित करें । 
·             सीखने-सिखाने की प्रक्रिया आरम्भ करने से पूर्व बालक के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, भूगौलिक व राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को जानना आवश्यक है । 
क्र    प्रत्येक बालक की विविधता के प्रति आदर रखना ।
समावेशित शिक्षा हेतु रणनितियाँ
           समावेशित शिक्षा हेतु कुछ रणनीतियाँ इस प्रकार हो सकती है :-
1 समावेशित विद्यालय वातावरण :-  बालकों की शिक्षा  चाहे वह किसी भी स्तर की हो, उसमें  विद्यालय के वातावरण का  बहुत  योगदान होता है। विद्यालय का वातावरण ही कुछ चीजों  की शिक्षा बालकों को स्वंय भी दे देता है । समावेशित शिक्षा के लिए यह आवश्यक है कि विद्यालय का वातावरण सुखद और स्वीकार्य होना चाहिए । इसके अतिरिक्ति विद्यालय  में  विशिष्ट बालकों की विशिष्ट शैक्षिक, चलिष्णुता, दैनिक आदि  आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु आवश्यक साज-समान शैक्षिक सहायताओं, उपकरणों, संसाधनों, भवन आदि का समुचित प्रबंध आवश्यक है । बिना इनके विद्यालय में समावेशित माहौल बनाने में कठिनाई हो सकती है । 
 2 सबके लिए विद्यालयः-   समावेशित शिक्षा की मूल भावना है एक ऐसा विद्यालय जहाँ सभी बालक एक साथ शिक्षा प्राप्त करते है, परन्तु सामान्यतः इस तरह की बातें देखने और सुनने में आती रहती है कि किसी बालक को उसकी विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं को पूरा करने में अपनी असमर्थता दर्शाते हुए, विद्यालय में प्रवेश देने से मना कर दिया या किसी विशेष विद्यालय में उसके दाखिले के लिए कहा हो। 
समावेशित शिक्षा के उद्देश्यों को सभी बालकों तक पहुचाने के लिए यह आवश्यक है कि विद्यालय में दाखिले की नीति में परिवर्तन किया जाना चाहिए । हालाँकि शिक्षा के अघिकार अधिनियम 2009 इस सन्दर्भ में एक प्रभावी कदम कहा जा सकता है परन्तु धरातल पर इसकी वास्तविकता में अभी भी संदेह होता है । 
3  बालकों के अनुरूप पाठ्यक्रम :- बालकों को शिक्षित करने का सबसे असरदार तरीका है कि उन्हे खेलने के तरीकों तथा गतिविधियों के माध्यम से  सीखाने का प्रयास किया जाना चाहिए। समावेशित शिक्षा व्यवस्था के लिए आवश्यक है कि विद्यालय पाठ्क्रम, बालकों की अभिवृत्तियों, मनोवृत्तियों, आकांशाओं तथा क्षमताओं को ध्यान में रखते हुए निर्घारित किया जाना चाहिए । इसके अतिरिक्त पाठ्क्रम में विविधता तथा पर्याप्त लचीलता होनी चाहिए ताकि उसे  प्रत्येक बालक की क्षमताओं, आवश्यकताओं, तथा रूचि के अनुसार अनुकूल बनाया सकें, बालकों मे विभिन्न योग्यताओं व क्षमताओं का विकास हो सकें, उसे  विद्यालय से बाहर, बालक के सामाजिक जीवन से जो जोड़ा जा सकें, बालकों को सामाजिक रूप से एक उत्पादित नागरिक बनाने में योगदान दे सकें  इसके अतिरिक्त बालक के समय का सदुपयोग करने की शिक्षा प्राप्त हो सकें ।  
मार्गदर्शन व निर्दैशन की व्यवस्थाः- विशेष आवश्यकताओं वाले बालकों की शिक्षा एक जीवन भर चलने वाली प्रक्रिया है । इस प्रक्रिया में नियमित शिक्षक, विशेष शिक्षक, अभिभावक और परिवार, समुदायिक अभिकरणों के साथ विद्यालय कर्मचारियों के बीच सहयोग और सहकारिता शामिल है । 
            समावेशित शिक्षा व्यवस्था के अर्न्तगत धर से विद्यालय जाते समय बालक को आरम्भ में नये परिवेश में अपने आपको समायोजित करने में कुछ असुविधा हो सकती है । जैसे आरम्भ में कक्षा के कार्यों में  सामंजस्य स्थापित करने में कठिनाई होना, दोस्तों का आभाव, नामकरण आदि के करण बालक के आत्मविश्वास में कमी होना । इसके अतिरिक्त किशोरावस्था के दौरान होने वाले शारीरिक, मानसिक, सामाजिक परिवर्तनों के कठिनाई के दौर में मार्गदर्शन एवं निर्देशन से बालक को इस संक्रमण काल में काफी सहायता मिलती है । उचित मार्गदर्शन व निर्दैशन से बालक और उसके माता-पिता दोनों ही इन परिवर्तनों के लिए मानसिक, शारीरिक और सामाजिक रूप से तैयार किये जा सकते है । 
4  सहायक तकनीकी उपकरणों का उपयोगः- आज के युग में तकनीकी उपायों से मानव जीवन काफी हद तक सुगम हो गया है । मानव जीवन के प्रत्येक पहलु पर आज तकनीक का प्रभाव देखा जा सकता है । समावेशित शिक्षा के सफलता के लिए और उसके प्रचार प्रसार के लिए शिक्षा व्यवस्था में तकनीक का उपयोग किये जाने की आवश्यकता है । टी0वी0, कार्यक्रमों, कम्प्यूटर, मोबाइल फोन, सहायक शिक्षा व चलुष्णुता तकनीकी उपकरणों का उपयोग करके बालकों की शिक्षा, सामाजिक अर्न्तक्रिया, मनोरंजन, आदि मे प्रभावी शाली भूमिका निभाई जा सकती है । इस लिए  आज आवश्यकता इस बात की है कि सावेशित शिक्षा वातावरण हेतु  बालकों, अभिभावको, शिक्षकों को इसकी नवीन तकनीकी विधियों से परिचित करवाया जाये तथा उनके प्रयोग पर बल दिया जाए । 
         समुदाय की सक्रिय भागीदारी -विशेष शैक्षिक आवश्यकताओं वाले बालकों की शिक्षा की पूरी बुनियाद प्रतिभागिता निर्मित करने पर टिकी हुई है । एक अकेले व्यक्ति के प्रयासों से उन्हे शिक्षा की मुख्यधारा में सम्मिलित नहीं किया जा सकता है । समावेशित शिक्षा हेतु यह आवश्यक है कि विद्यालयों को सामुदायिक जीवन का केन्द्र बनाया जाना चाहिए जिससे की बालक की सामुदायिक जीवन की भावना को बल मिलें क्योंकि उसे एक निश्चित समय के पश्चात् उसी समुदाय का एक सक्रिय सदस्य के रूप में अपनी भूमिका का निर्वाह करना है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए समय-समय पर विद्यालय में सांस्कृतिक कार्यक्रम,वाद-विवाद, खेलकूद, देशाटन, जैसे मनोरंजक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाना चाहिए और उनमें बालकों के अभिभावकों और समाज के अन्य सम्मानित व्यक्तियों को आमंत्रित किया जाना चाहिए जिसे कि उन्हें इन बालकों के एक समावेशित शिक्षा वातावरण में शिक्षा ग्रहण करने के संबध  में फैली भ्राँतियों को दूर कर उन्हे इन बालकों की योग्यता व प्रतिभा से परिचित करवाया जा सकें । 
5  शिक्षकों का पर्याप्त प्रशिक्षण :- शिक्षक को ही शिक्षा पद्धति की वास्तविक गत्यात्मक शक्ति तथा शैक्षिक संस्थानों की आधारशिला माना गया है। यद्यपि यह बात सत्य भी है कि विद्यालय भवन, पाठ्यक्रम, पाठ्य सहभागी क्रियायें, सहायक शिक्षण सामग्री, आदि सभी वस्तुयें व क्रियाकलापों का भी शैक्षिक प्रक्रिया में महत्वपूर्ण स्थान होता है, परन्तु शिक्षक ही वह शक्ति है जो प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को सबसे अधिक प्रभावित करता है । 
            समावेशित शिक्षा व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षकों की जिम्मेदारी  और भी बढ़ जाती है क्योंकि समावेशित शिक्षा व्यवस्था में अध्यापक केवल अपने आपको केवल शिक्षण कार्य तक ही अपने आपको सीमित नहीं रखता है, अपितु विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं वाले बालकों का कक्षा में उचित ढंग से समायोजन करना, उनके लिए विशिष्ट प्रकार की शैक्षिक सामग्री का निर्माण करना, विद्यालय के अन्य कर्मचारियों, अध्यापकों तथा विशिष्ट अध्यापक से  बालक की विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सहयोग व सहकारपूर्ण व्यवहार  करना, बालक को मिलने वाली आर्थिक सुविधाओं का वितरण करना आदि कार्य भी करने पड़ते है। इसलिए अघ्यापक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह पूर्णतः निपुर्ण हो, उसे विशिष्ट सामग्री की जानकारी हो, बालकों के प्रति स्वस्थ व सकारात्मक अभिवृत्तियाँ रखता हो, उनके मनोविज्ञान को समझाता हो । 
            संक्षेप में कहा जा सकता है कि समावेशन की नीति को हर स्कूल और सारी शिक्षा व्यवस्था में व्यापक रूप से लागू किए जाने की ज़रूरत है। बच्चे के जीवन के हर क्षेत्र में वह चाहे स्कूल में हो या बाहर, सभी बच्चों की भागीदारी सुनिश्चित किए जाने की ज़रूरत है। स्कूलों को ऐसे केंद्र बनाए जाने की आवश्यकता है जहाँ बच्चों को जीवन की तैयारी कराई जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि सभी बच्चों, खासकर शारीरिक या मानसिक रूप से असमर्थ बच्चों, समाज के हाशिए पर जीने वाले बच्चों और कठिन परिस्थितियों में जीने वाले बच्चों को शिक्षा के इस महत्वपूर्ण क्षेत्र के सबसे ज्यादा फायदे मिलें 
     मनोज कुमार, प्रवक्ता , युवा प्रकोष्ठ, राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद्, दिल्ली. 




समावेशी विकास
भारत में समावेशी विकास की अवधारण कोई नई नहीं है। प्राचीन धर्म ग्रन्थों का यदि अवलोकन करें, तो उनमें भी सभी लोगों को सात लेकर चलने का भाव निहित है। सर्वे भवन्तु सुखिन में भी सबको साथ लेकर चलने का ही भाव निहित है, लेकिन नब्बे के दशक से उदारीकरण की प्रक्रिया के प्रारम्भ होने से यह शब्द नए रूप में प्रचलन में आया, क्योंकि उदारीकरण के दौर में वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं को भी आपस में निकट से जुड़ने का मौका मिला और अब यह अवधारणा देश और प्रान्त से बाहर निकलकर वैश्विक सन्दर्भ में भी प्रासंगिक बन गई है। सरकार द्वारा घोषित कल्याणकारी योजनाओं में इस समावेशी विकास पर विशेष बल दिया गया और 12वीं पंचवर्षीय योजना 2012-17 का तो सारा जोर एक प्रकार से त्वरित, समावेशी और सतत् विकास के लक्ष्य हासिल करने पर है, ताकि 8 फीसद की विकास दर हासिल की जा सके।
क्या है समावेशी विकास?
समान अवसरों के साथ विकास करना ही समावेशी विकास है। दूसरे शब्दों में ऐसा विकास जो न केवल नए आर्थिक अवसरों को पैदा करे, बल्कि समाज के सभी वर्गो के लिए सृजित ऐसे अवसरों की समान पहुंच को सुनिश्चित भी करे हम उस विकास को समावेशी विकास कह सकते हैं। जब यह समाज के सभी सदस्यों की इसमें भागीदारी और योगदान को सुनिश्चित करता है। विकास की इस प्रक्रिया का आधार समानता है। जिसमें लोगों की परिस्थितियों को ध्यान में नहीं रखा जाता है।
यह भी उल्लेखनीय है कि समावेशी विकास में जनसंख्या के सभी वर्गो के लिए बुनियादी सुविधाओं यानी आवास, भोजन, पेयजल, शिक्षा, कौशल, विकास, स्वास्थ्य के साथ-साथ एक गरिमामय जीवन जीने के लिए आजीविका के साधनों की सुपुर्दगी भी करना है, परन्तु ऐसा करते समय पर्यावरण संरक्षण पर भी हमें पूरी तरह ध्यान देना होगा, क्योंकि पर्यावरण की कीमत पर किया गया विकास न तो टिकाऊ होता है और न समावेशी ही वस्तुपरक दृटि से समावेशी विकास उस स्थिति को इंगित करता है। जहां सकल घरेलू उत्पाद की उच्च संवृद्धि दर प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद की उच्च संवृद्धि दर में परिलक्षित हो तथा आय एवं धन के वितरण की असमानताओं में कमी आए।
समावेशी विकास की दशा और दिशा
आजादी के 65 वर्ष बीत जाने के बाद भी देश की एक चौथाई से अधिक आबादी अभी भी गरीब है और उसे जीवन की मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। ऐसी स्थिति में भारत में समावेशी विकास की अवधारणा सही मायने में जमीनी धरातल पर नहीं उतर पाई है। ऐसा भी नहीं है कि इन छह दशकों में सरकार द्वारा इस दिशा में प्रयास नहीं किए गए केन्द्र तथा राज्य स्तर पर लोगों की गरीबी दूर करने हेतु अनेक कार्यक्रम बने, परन्तु उचित अनुश्रवण के अभाव में इन कार्यक्रमों से आशानुरूप परिणाम नहीं मिले और कहीं तो ये कार्यक्रम पूरी तरह भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए। यही नहीं, जो योजनाएं केन्द्र तथा राज्यों के संयुक्त वित्त पोषण से संचालित की जानी थीं, वे भी कई राज्यों की आर्थिक स्थिति ठीक न होने या फिर निहित राजनीतिक स्वार्थो की वजह से कार्यान्वित नहीं की जा सकीं।
समावेशी  विकास ग्रामीण तथा शहरी दोनों क्षेत्रों के संतुलित विकास पर निर्भर करता है। इसे समावेशी विकास की पहली शर्त के रूप में भी देखा जा सकता है। वर्तमान में हालांकि मनरेगा जैसी और भी कई रोजगारपरक योजनाएं प्रभावी हैं और कुछ हद तक लोगों को सहायता भी मिली है, परन्तु इसे आजीविका का स्थायी साधन नहीं कहा जा सकता, जबकि ग्रामीणों के लिए एक स्थायी तथा दीर्घकालिका रोजगार की जरूरत है। अब तक का अनुभव यही है कि ग्रामीण क्षेत्रों में सिवाय कृषि के अलावा रोजगार के अन्य वैकल्पिक साधनों का सृजन ही नहीं हो सका, भले ही विगत तीन दशकों में रोजगार सृजन की कई योजनाएं क्यों न चलाई गई हों। सके अलावा गांवों में ढ़ांचागत विकास भी उपेक्षित रहा फलतःगांवों से बड़ी संख्या में लोगों का पलायन होता रहा और शहरों की ओर लोग उन्मुख होते रहे। इससे शहरों में मलिन बस्तियों की संख्या बढ़ती गई तथा अधिकांश शहर जनसंख्या के बढ़ते दबाव को वहन कर पाने में असमर्थ ही हैं। यह कैसी विडम्बना है कि भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहीं जाने वाली कृषि अर्थव्यवस्था निरन्तर कमजोर होती गई और वीरान होते गए, तो दूसरी ओर शहरों में बेतरतीब शहरीकरण को बल मिला और शहरों में आधारभूत सुविधाएं चरमराई यही नहीं रोजी-रोटी के अभाव में शहरों में अपराधों की बढ़ ई है।
वास्तविकता यह है कि भारत का कोई राज्य ऐसा नहीं है जहां कृषि क्षेत्र से इतर वैकल्पिक रोजगार के साधन पर्याप्त संख्या में उपलब्ध हों, परन्तु मूल प्रश्न उन अवसरों के दोहन का है सरकार को कृषि में भिनव प्रयोगों के साथ उत्पादन में बढ़ोतरी सहित नकदी फसलों पर भी ध्यान केन्द्रित करना होगा। यहां पंचायतीराज संस्थाओं के साथ जिला स्तर पर कार्यरत् कृषि अनुसंधान संस्थाओं की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है जो किसानों से सम्पर्क कर कृषि उपज बढ़ाने की दिशा में पहल करे तथा उनके समक्ष आने वाली दिक्कतों का समाधान भी खोजे तभी कृषि विकास का इंजन बन सकती है। कृषि के बाद सम्बद्ध राज्य में मौजूद घरेलू तथा कुटीर उद्योगों के साथ पर्यटन पर भी ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। सरकार को आर्थिक सुधारों के साथ-साथ कल्याणकारी योजनाओं जैसे मनरेगा, सब्सिडी का नकद अन्तरण आदि पर भी समान रूप से ध्यान देना होगा।
भारत की विकास दर, जो वर्ष 2012-13 में पांच फीसद है, वह पिछले दस वर्षो में सबसे कम है वर्ष 2013-14 की स्थिति भी कोई बहुत अच्छी नहीं है भारतीय रिजर्व बैंक ने विकास दर की सम्भावना को घटाकर 5.5 कर दिया है। वर्ष 2002-03 में विकास दर चार फीसद थी, लेकिन उस समय भयंकर सूखे की वजह से ऐसा हुआ था, लेकिन इस बार ऐसी कोई बात नहीं है। समावेशी विकास हेतु श्रम बहुल विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देना ही होगा। यदि विकास दर में 8-9 फीसद प्रतिवर्ष चाहते हैं, तो विनिर्माण क्षेत्र को 14-15 फीसद प्रतिवर्ष की दर से सतत् आधार पर विकास करना होगा। जापान,कोरिया तथा चीन में विनिर्माण क्षेत्र की स्थिति देखें, तो यह संघ के संघटक रूप में भारत की तुलना में काफी अच्छी है।
चीन में जहां यह 42 फीसद, दक्षिण कोरिया में 30 फीसद तो भारत में मात्र 16 फीसद है। कुच समय पहले घोषित राष्ट्रीय विनिर्माण नीति एनएमपी का उद्देश्य भारत में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी को 2021-22 तक 16 फीसद से बढ़ाकर 25 फीसद करना और अतिरिक्त 100 मिलियन रोजगार अवसर प्रदान करना है इस हेतु भारत के प्राचीनतम श्रम कानून में जो विश्व में सबसे ज्यादा सख्त है, संशोधन करना होगा, ताकि वे कामगारों की सुरक्षा के उनकी रोजी-रोटी को भी बचा सके पूर्वी, पश्चिमी तथा दक्षिण क्षेत्रों के समर्पित माल ढुलाई गलियारा डेडिकेटेड फ्रेट कोरिडोर्स का त्वरित कार्यान्वयन करना होगा। स्मरम रहे कि इसमें दक्षता विकास के जरिए जॉब प्रशिक्षण की व्यवस्था है।
माध्‍यमिक स्‍तर पर नि:शक्‍तजन समावेशी शिक्षा योजना (ईडीएसएस) वर्ष 2009-10 से प्रारम्‍भ की गई है। यह योजना नि:शक्‍त बच्‍चों के लिए एकीकृत योजना (आईईडीसी) संबंधी पहले की योजना के स्‍थान पर है और कक्षा IX-XII में पढने वाले नि:शक्‍त बच्‍चों की समावेशी शिक्षा के लिए सहायता प्रदान करती है। यह योजना अब वर्ष 2013 से राष्‍ट्रीय माध्‍यमिक शिक्षा अभियान (आरएमएसए) के अंतर्गत सम्मिलित कर ली गई है। राज्‍य/संघ राज्‍य क्षेत्र भी आरएमएसए के रूप में इसे आरएमएसए योजना के अंतर्गत सम्मिलित करने की प्रक्रिया में है।

उद्देश्‍य

सभी नि:शक्‍त छात्रों को आठ वर्षों की प्राथमिक स्‍कूली पढ़ाई पूरी करने के पश्‍चात आगे चार वर्षों की माध्‍यमिक स्‍कूली पढ़ाई समावेशी और सहायक माहौल में करने हेतु समर्थ बनाना।

लक्ष्‍य

योजना में नि:शक्‍त व्‍यक्ति अधिनियम (1995) और राष्‍ट्रीय न्‍यास अधिनियम (1999) के अंतर्गत कक्षा IX-XII में पढ़ने वाले यथा-परिभाषित एक या अधिक नि:शक्‍तता नामश: दृष्टिहीनता, कम दृष्टि, कुष्‍ठ रोग उपचारित, श्रवण शक्ति की कमी, गतिविषय नि:शक्‍तता, मंदबुद्धिता, मानसिक रूग्‍णता, आत्‍म-विमोह और प्रमस्तिष्‍क घात वाले जिसमें अंतत: वाणी की हानि अधिगम नि:शक्‍तता इत्‍यादि भी शामिल है। इसमें सरकारी, स्‍थानीय निकाय और सरकारी सहायता प्राप्‍त स्‍कूलों में पढ़ने वाले बच्‍चे शामिल है, नि:शक्‍तता वाली बालिकाओं पर विशेष ध्‍यान दिया जाता है जिससे उन्‍हें माध्‍यमिक स्‍कूलों में पढ़ने और अपनी योग्‍यता का विकास करने हेतु सूचना और मार्गदर्शन सुलभ हो। योजना के अंतर्गत हर राज्‍य में मॉडल समावेशी स्‍कूलों की स्‍थापना करने की कल्‍पना की गई है।

संघटक

·         छात्र अभिमुखी घटक जैसे चिकित्‍सा और शैक्षिक निर्धारण, पुस्‍तकें और लेखन सामग्री, वर्दियां, परिवहन भत्‍ता, रीडर पाठक भत्‍ता, बालिकाओं के लिए वृत्तिका, सहायक सेवाएं, सहायक युक्तियां, भोजन और आवास सुविधा, रोगोपचार सेवाएं, शिक्षण-अधिगम सामग्री इत्‍यादि।
·         अन्‍य संघटकों में विशेष शिक्षा शिक्षकों की नियुक्ति, ऐसे बच्‍चों को पढ़ाने हेतु सामान्‍य शिक्षकों के लिए भत्‍ते, शिक्षक प्रशिक्षण, स्‍कूल प्रशासकों का अभिविन्‍यास, संसाधन कक्ष की स्‍थापना, बाधायुक्‍त वातावरण इत्‍यादि शामिल हैं।

कार्यान्‍वयन अभिकरण

राज्‍य सरकारें/संघ राज्‍य क्षेत्र (यूटी) प्रशासन कार्यान्‍वयन अभिकरण हैं। इनमें नि:शक्‍तजनों की शिक्षा के क्षेत्र में योजना कार्यान्‍वयन का अनुभव रखने वाले स्‍वैच्छिक संगठन भी शामिल हो सकते हैं।

वित्‍तीय सहायता

योजना में शामिल सभी मदों के लिए केन्‍द्रीय सहायता 100 प्रतिशत आधार पर है। राज्‍य सरकारों से प्रतिवर्ष प्रति नि:शक्‍त बच्‍चे के लिए केवल 600/- रूपए की छात्रवृत्ति का प्रावधान रखना अपेक्षित है।










33 comments:

  1. उपयोगी व सारगर्भित लेख

    ReplyDelete
  2. very useful for hindi medium

    ReplyDelete
  3. Sir! It's very useful for us who are studying pysocology..

    ReplyDelete
  4. iedc sarv pratham kab arambh hui

    ReplyDelete
  5. Great education for special child..

    ReplyDelete
  6. बच्चों के जीवन में स्कूल की भूमिका क्या है ? यहां जाने ------> https://bit.ly/2sxeEmV

    ReplyDelete
  7. विशेष शिक्षक ही तो विशेष आवश्कता वाले छात्रों को पड़ा सकते है
    पर विशेष शिक्षक भर्ती क्यों नहीं होती
    हर स्कूल मै 1विशेष शिक्षक होगा तो इनकी शिक्षा बेहतर हो सकेगी

    ReplyDelete
    Replies
    1. Right sir mai bhi special educator hu fir bhi koi adhikari is baat ko kyu nhi sjhta ki har school me ek special educator hona chahiye jisse bachho ki padahi sucharu top se honi chahiye jaise normal bachho ki hoti hai

      Delete
    2. Right sir mai bhi special educator hu fir bhi koi adhikari is baat ko kyu nhi sjhta ki har school me ek special educator hona chahiye jisse bachho ki padahi sucharu top se honi chahiye jaise normal bachho ki hoti hai

      Delete
  8. में राजस्थान झालावाड़ जिले का निवासी हूं विशेष शिक्षक(vi) के रूप में अपनी सेवा दे सकता हूं।

    ReplyDelete
  9. Nice content 👌👌👍👍

    ReplyDelete
  10. इसमे समावेशी शिक्षा की समस्याएं नहीं है

    ReplyDelete
  11. समावेशी विद्यालय में दृष्टि बाधित बालकों के प्रवेश हेतु तैयारियों की विवेचना कैसे करेंगे

    ReplyDelete
  12. Very nice sir apne bhut accha aur easy language me samjhaya hai...sstmaster

    ReplyDelete
  13. 🙂😃😀😄😁😆 superb

    ReplyDelete
  14. useful content

    ReplyDelete